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________________ है। लोक था, हैं और रहेगा, इसीलिए काल की दृष्टि से लोक अनंत हैं। लोक अनंत वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों से युक्त हैं अत: पर्याय की दृष्टि से लोक अनंत हैं । सर्वज्ञ के कथन में विश्वास न करते हुए यह कहना कि हम नहीं जानते या देखते इसलिए कैसे माने ? ऐसा सोचना गलत है। विश्व में ऐसी कई बाते हैं जो हम नहीं जानते देखते तो भी मान लेते है। आपका बेटा या आपका मित्र कोई अमेरीका या कहीं गया हो और वहाँ की कोई बात कहें हमने नहीं देखी हो तो हम उसे सच मानेंगे कि नहीं ? जब तक हमें केवलज्ञान नहीं होता है तब तक हमें केवली भगवानपर विश्वास करना चाहिए। अभी वर्तमान में तो हमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान दो ही ज्ञान हैं और वो भी पूरे विशुद्ध नहीं है। बाकी तीन ज्ञान अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान तो हैं नहीं पर हमारी बाते तो ऐसी होती हैं कि हम केवलज्ञान से भी अधिक ज्ञान रखते हैं। सामान्यत: जीव में दो शक्ति हैं, दर्शन और ज्ञान। दर्शन विकल्प रहित होने से सामान्य को ग्रहण करता है। ज्ञान विकल्प सहित होने से विशेष को ग्रहण करता है। ज्ञान और दर्शन दोनों का जब प्रयोग होता है तब उपयोग कहलाता है। ज्ञान और दर्शन दोनों जब स्वरुप में होते हैं तब गुण कहलाते है। इसके स्वसंपत् और परसंपत् ऐसे दो प्रकार बताए है। स्वयं में ज्ञानदर्शन होना, स्वयं को जानना और स्वयं को देखना स्वसंपत् हैं। सर्व को जानना और देखना परसंपत् है। जो सर्व को जानता और देखता है उसे सर्व जाने भी नहीं देखे भी नहीं यह कैसा आश्चर्य हैं? अंधकार में कोई टॉर्च या बॅटरी लेकर चलता हो वह जहाँ पर प्रकाश फेंकता है वहाँ का सब कुछ दिखता है। प्रकाश में रहे हुए सभी लोग आसपास का सबकुछ जानते हैं देखते हैं और अनुभव करते है । परंतु प्रकाश फेंकनेवाला किसी को दिखाई नहीं देता है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी की हमपर दृष्टि पडती है तब हमारा ६६ लाख योनियों का परिभ्रमण कम हो जाता है। सर्वज्ञ को हम देख नहीं सकते हैं परंतु ध्यान में जान सकते है। श्रेणीक महाराजा ने भगवान महावीर का ऐसा ध्यान धाया कि उस ध्यान के प्रभाव से वे अगली चौबीसी में महावीर जैसे ही तीर्थंकर होंगे। ज्ञानबिमलजी ने एक स्तवन में कहा है - वर्धमान जिनवरना ध्याने, वर्धमान सम थावे रे... कषाय जीव का विभाव है। ज्ञान जीव का स्वभाव है। विभाव का सर्वथा नाश होता है तब केवलज्ञान होता है। ज्ञानी के दो प्रकार है सर्वज्ञ और शब्दज्ञ । विश्व के सर्व द्रव्य के सर्व पर्यायों को जो जानते हैं वे सर्वज्ञ कहलाते है । शब्दों के अर्थ विशेषार्थ, विशदार्थ आदि बताते हैं उन्हें शब्दज्ञ कहते हैं। जितने भी गणधर हो गए वे सब शब्दज्ञानी तो थे पर सर्वज्ञ नहीं बन सके थे। प्रभु का संयोग हुआ शब्दज्ञान सत्ज्ञान में परिणमित हो गया और शब्दज्ञान सर्वज्ञान की ओर रूपांतरीत हो गया। सर्वज्ञ बनने के लिए स्वज्ञ बनना आवश्यक है। सर्व को जानने से पहले स्वयं को जान लेना चाहिए। सर्वज्ञ बनने के लिए अपने संपूर्ण अस्तित्त्व के प्रदेश प्रभु के समक्ष रख दो। कोई भी आत्मप्रदेश सर्वज्ञमय प्रदेश से अनछूआ न रहे वैसा अध्यवसाय बना लो। सर्फेस टु सर्फेस हो जाओ। आप सोचोगे संसार में रहते हुए ऐसा या इतना कैसे संभव होगा? परंतु यह बिलकुल संभव हो सकता है। यदि आपका 234
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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