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जता रहे हैं। यह तो आप मानते हैं कि आत्मा अनंत गुण संपन्न हैं। आप यह भी मानते हो कि आत्मा के इतने गुण होते हुए भी वे सारे गुण प्रकट नहीं हैं। इन गुणों को आवरण में कौन रखता है? गुणों की घात कौन करता हैं। अनादि काल से ऐसा होता रहा हैं। कौन करता हैं यह? क्या अन्य कोई हमारे भीतर ऐसा कर सकता हैं? अधिकार आदि की बात छोडो यहाँ बात अधिकार की नहीं सामर्थ्य की हैं। गणधर भगवंत आश्वासन देते हैं कि आवरणों को खोलने में परमपुरुष की आराधना का आलंबन ले सकता है परंतु बंधन में अन्य कौन समर्थ हो सकता हैं? जीव स्वयं ही यह सब करता है। जीव स्वयं ही बंधन बाँधता हैं और स्वयं ही बंधन तोडता हैं । अर्थात् स्वयं की असातना स्वयं ही करता हैं।
. मजे की बात तो यह हैं कि जीव स्वयं कभी भी अपने आपको इस बात का जिम्मेवार नहीं ठहराता है। इसके लिए वह अन्य को ही दोष देता हैं। आत्मगुण तो बहुत गहरी बात हैं पर छोटे छोटे अपराध के प्रति भी जीव अन्य को जिम्मेवार ठहराता हैं। जैसे एक घर में गोचरी गई, पात्रे खोले, आहार देनवाली बहनने सब्जी की पतीली खोली
और बंद कर दी। उसमें तोरु की सब्जी थी। बनी बनायी सब्जी प्रासुक होती हैं फिर भी उसने पतीली बंद कर दी। आहार लेनेवालों को इस बारे में मौन रखना चाहिए, कौतुहल रहित रहना चाहिए, कारण जानने के प्रति उपेक्षित रहना चाहिए और प्रश्नरहित रहना चाहिए ऐसी भगवान की आज्ञा हैं। मैंने वैसा ही किया। कुछ पूछा नहीं कि यह
सब्जी क्यों नहीं बहेराइ। इन्सान का स्वभाव स्वयं ही स्वयं को खोलता हैं। बहन एकदम कहने लगी सब्जी हैं पर उसमें नमक ज्यादा पड गया इसलिए मैं आपको नहीं बहेरा रही। तब भी मैं मौन थी। उसने आगे बोलना शुरु किया। क्या हुआ, मैं सब्जी बना रही थी और मेरी ननंद का फोन आ गया। उसका स्वभाव इतना खराब हैं कि मइके में किसी से नहीं पटती पर ससुराल में भी किसीसे नहीं पटती है। मेरे को इतने ताने मार रही थी कि.... । मैं ने सोचा अब भगो यहाँ से यह दास्तान कभी पूरी नहीं होगी। पर बात खतम कैसे करु? इसके लिए मुझे कुछ बोलना जरुरी था। मैंने कहा बहन यह बात मुझे समझ में आयी कि आपकी ननंद का फोन आया, उसका स्वभाव खराब हैं आदि आदि परंतु यह नहीं समझ में आया कि उसने फोन में आपको सब्जी में अधिक नमक डालने का क्यों कहा? ननंद खराब हैं पर आप बहुत समझदार हैं आपने उसकी फोन में दी हुई बात को मानकर सब्जी नमक अधिक क्यों डाला? एकदम कहने लगी नहीं नहीं उसने नहीं कहा परंतु इस रामायण में मेरा ही दिमाग खराब हो गया कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने अधिक नमक डाल दिया। सब्जी में नमक अधिक गिरने में फोन खराब हैं, ननंद खराब हैं इस बार में मैं सोचु इसके पहले उसने कहा कि मेरा दिमाग खराब हो गया। इसतरह अनेक घटनाए हैं। चैतन्य ही नहीं पर पदार्थ या पुद्गल के साथ भी जीव ऐसा करता हैं। अनंत गुण संपन्न आत्मा जड पदार्थ को दोषित बना देता हैं। एक भाई ऑफिस पहुंचे। आफिस की चाबी घरपर भूल गए। मित्र ने पूछा ध्यान क्यों नहीं रखते हो? पता है आपको उत्तर में उसने किसको दोषित ठहराया? स्वयं को नहीं पत्नी को दोषित ठहराया।
जीव स्वयं को कही भी दोषित नहीं ठहराता। कहीं अपना अपराध स्वीकार नहीं करता। स्वयं के अस्तित्त्व के प्रति साक्षीमय नहीं रहता। ये दोष ही आत्मा के गुणों का घात करते हैं। इसीकारण दोष मुक्त होने के सूत्र में
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