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जंयती श्राविका ने एकबार भगवान महावीर से पूछा था प्रभु ! जीव का सुप्त रहना अच्छा या जाग्रत रहना अच्छा? परमात्मा ने कहा, जो व्यक्ति धर्मनिष्ठ हैं, बलवान हैं, उद्यमि हैं उनका जाग्रत रहना अच्छा हैं। क्योंकि वे जाग्रत रहेंगे तो अन्य को भी जाग्रत, उद्यमि और धर्मनिष्ठ बनाएंगे। चालन अर्थात चलाते रहना। पालन अर्थात् पालते रहना। जैसे माँ बच्चे का पालन-पोषण करती हैं। जैसे गर्दभाली मुनि ने संभ्रांत एवं भयभीत मृगों की पालना प्रतिपालना करके उन्हें आरक्षित किए थे। भगवान महावीर ने चंडकौशिक की पालना कर उसे सर्प में से देव बनाया था। मार्ग से पतित होने का पता होनेपर भी नंदीषेण को दीक्षा देकर आत्मा को संयम से पुष्ट किया था। राजकुमारी पद से च्युत होनेपर दासी आदि बनी हुई चंदना के अंतरभावों का चालन करने में पवित्रता की पालना करने में पुण्यभावों की पुष्टि करने में राजमार्ग का रक्षण कर शासन प्रथम स्वामीनी बना दी।
शास्त्रकार कहते हैं, धर्म सारथि आकाशवत् निर्लिप्त होते हैं, अलिप्त रहते हैं । जैसे आकाश में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती वह निरंतर निर्लिप्त रहता है। चाहे बिजली चमके, चाहे इन्द्रधनुष्य निर्मित हो, सूर्य चमको या बादल छा जाए आकाश सदा शुद्ध रहता है। आप सोचते होंगे निर्लिप्तता का क्या अर्थ होता हैं? घर, परिवार, राज्य आदि तो दीक्षा के समय ही वे छोड चुके होते हैं। अब धर्म शासन प्रवर्तना में निर्लिप्तता अलग क्या हैं? परमात्मा के निर्लिप्तता जाननेवाली, माननेवाली और अनुभव करनेवाली होती हैं। संसार में कोई भी व्यक्ति कुछ निर्माण करते हैं तो उसे वे अपना मानते हैं। संस्था, शास्त्र, शिष्यसंपदा आदि को अपना मानते है। तीर्थंकर प्रभु तीर्थ की रचना करके यह तीर्थ मेरा हैं इसलिए मुझे इसपर शासन अनुशासन करना हैं। इसमें प्रकाश और विकास करना हैं। ऐसे कोई विकल्प नहीं करते हैं । माली जैसे किसी उपवन को सजाता संवारता हैं परंतु उसे वह कभी अपनी मालिकी का नहीं मानता हैं। किसी शेठ ने पाँच पंद्रह लाख की गाडी खारिदी हो, स्वयं को गाडी चलाना न आता हो तब पाँच पंद्रह हजार की तनखाह देकर ड्राईव्हर रखता हैं। हमेशा गाडी चलाते रहनेपर भी ड्राइव्हर गाडी को कभी अपनी नहीं मानता हैं। व्यवहार का यह उदाहरण हमें प्रश्न का उत्तर समझा देता हैं बाकी तो परमात्मा की महिमा अपरंपार हैं । उनका निर्लेपभाव अतिउत्तम कोटी का होता हैं।
शास्त्रों में कथित चार रेखांकनों का आपको पता होगा पत्थर पर रेखा अंकित करनेपर उसे मिटाने में हजार वर्ष लगते हैं। रेतपर किया गया रेखांकन पवन के झोंके से मिट जाता है। पानी में की गई रेखा का करते करते अस्तित्त्व मिट जाता हैं। परंतु आकाश में रेखा होती ही नहीं अत: मिटाने का सवाल ही नहीं उठता। परमात्मा की चेतना समस्त संक्रमणों के प्रभाव से रहित होती हैं । इसीकारण वे अनंत चेतनाओं के जीवन के रथ के सारथ बनकर मोक्ष मार्गतक पहुंचाने में सफल रहते हैं ।
यात्रा का प्रारंभ गुरु से होता हैं । गुरुपद हमारे एकदम करीब होता हैं। यह पद प्रथम होते हुए भी अं पडाव तक साथ रहता हैं। गुरु के साथ की यह यात्रा अप्रतिबंधित होती हैं। हम स्वयं कितने भारी हैं या हमारे साथ कितना भार लदा हैं इसके बारे में हमारे साथ कोई विवाद नहीं। एकदम प्रेम से स्वीकारा गया यह संबंध इतना गहन भी होता हैं कि हमारी जटिल हरकतो से होनेवाली गाडी या यात्रा में होनेवाली मुसीबतों में भी वे पूर्ण साथ देते हुए
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