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सिद्धिगईनामधेयं ठाणं संपत्ताणं। जबतक सिद्धि गति प्राप्त न हो, जब तक मोक्ष की अवस्था प्रगट न हो तब तक परमात्मा हमें मार्ग सहायता प्रदान करते हैं।
आपको एक कथा का ध्यान होगा कि एक देव ने एकबार भगवान की देशना सुनकर पूछा था कि भगवान मृत्यु के बाद मेरी कौनसी गति होगी? भगवान ने कहा, वत्स! तुम यहाँ से मरकर बंदर का अवतार लोगे। उत्तर सुनकर देव उस भव को सार्थक करने का चिंतन करने लगा। देव ने जंगल के प्रत्येक पत्थरपर नमो अरिहंताणं धम्मनायगाणं मंत्र का आलेखन करवाया। आयु पूर्ण करके जंगल में बंदर बना हुआ वह इतस्ततः यहाँ वहाँ घूमता रहा। ऐसा करते हुए उसकी नजर पत्थरोंपर लिखे हुए अक्षरोंपर गयी। लिपि तो पढ नहीं सकता था परंतु पूर्व जन्म के संस्कार जागृत हो गए। शब्द के अक्षरों की लिपि नहीं पढ सकने वाला बंदर आत्मा की अक्षर लिपि को पढने लगा। तुरंत ही पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। देवभव और उसके पूर्वभव की चंचल वृत्ति को याद करते ही उसने बंदर वृत्ति का त्याग कर अनशन के साथ मंत्र स्मरण पूर्वक परमतत्त्व को नेतृत्त्व करने के लिए नमो अरिहंताणं धम्मनायगाणं मंत्र का स्मरण करते हुए आयुष्य पूर्णकर मनुष्य जन्म पाया । वहाँ धम्मनायगाणं का प्रत्यक्ष प्रतिबोध प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया ।
लोकालोक में रहते हुए जीवंत सृष्टि में इसतरह के ऐसे कई उदाहरण प्राप्त होते हैं जिसमें जिनवचन, जिनाज्ञा, जिनेश्वर का सान्निध्य आदि नेतृत्त्व स्वरुप बनकर जीव को प्रोत्साहित और प्रतिबोधित करते हैं।
नमोत्थुणं धम्मनायगाणं
नमोत्थुणं धम्मनायगाणं
नमोत्थुणं धम्मनायगाणं
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