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अभिलाप्य वस्तु का विस्तृत बोध हो जाता है। यह एक तीर्थंकर और गणधर के मध्य होनेवाली माध्यस्थ विधि है। तीर्थंकर नामकर्म के उदय से त्रिपदी देते हैं और गणधर विशिष्ट पुण्य प्रभाव से इसे उपलब्ध करते है। त्रिपदी का प्रारंभ इसतरह होता है। गणधर परमात्मा को एक प्रदिक्षणा देकर चरणों में नमस्कार करते है और पूछते हैं - भयवं ! किं तत्तं ? परमात्मा द्रव्य और पर्याय के उत्पादन का सिद्धांत व्यक्त करते हुए उत्तर देते हैं - उप्पन्ने इवा! गणधर भगवंत इस उत्तर का चिंतन करते हैं। पुनःश्च जिज्ञासा उत्पन्न होती है। फिर प्रदक्षिणा देते है, नमस्कार करते है और पूछते हैं - भयवं! किं तत्तं ? द्रव्य में व्यय, विगम अथवा विनाश का सिद्धांत व्यक्त करते हुए उत्तर देते है - विगमे इ वा ! परमात्मा का उत्तर सुनकर गणधर भगवंत इस उत्तर का चिंतन करते हैं। पुन:श्च जिज्ञासा उत्पन्न होती है। फिर प्रदक्षिणा देते है, नमस्कार करते है और पूछते हैं - भयवं ! किं तत्तं ? तीसरी बार प्रश्न सुनकर तीर्थंकर प्रभु द्रव्य के ध्रौव्य अर्थात् शाश्वत सिद्धांत व्यक्त करते हुए कहते हैं -धुवे इवा । गणधर भगवंत तीन बार प्रश्न पूछते हैं उसे निसद्यात्रय कहते हैं। परमात्मा के उत्तर को त्रिपदी कहते हैं। इस त्रिपदी में समस्त द्वादशांगी का सार समया हुआ है। प्रभु के मुख से उच्चारित त्रिपदी का श्रवण कर शिष्यों में गणधर नामकर्म का उदय होता है। सभी गणधरों के अपने अपने ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम होते है। अत्यंत उत्कृष्ट क्षयोपशम होने के कारण उत्कृष्ट मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते है। इस कारण वे मुहूर्त मात्र में द्वादशांगी की रचना कर सकते है।
___उत्पन्न होना और विनाश होना ये तो जगत् मान्य सिद्धांत है। जो जन्म लेता हैं वह मरता है इसे तो सारा जगत् जानता हैं। यदि ध्रुवता न होती तो परभव, पुण्य-पाप का फल, मोक्ष मार्ग की आराधना और मोक्ष की प्राप्ति आदि का अवकाश ही प्राप्त नहीं हो सकता। अत: उत्पादव्यय के साथ ध्रुव का सिद्धांत परिपूर्णता की पुष्टि करता है। त्रिपदी में तीन बार वा का उच्चार प्रति समय आगे आगे के सिद्धांत की सूचना करते है। जैसे उत्पन्न के साथ दिया गया वा विगम की सूचना करता है और विगम के साथ दिया गया वा ध्रुव का सिद्धांत सूचित करता है। इस वा के प्रयोग के द्वारा परमात्मा ने द्रव्य के अन्य धर्मों के अस्तित्त्व का स्वीकार किया है। कई लोग ऐसा अन्यथा समझते हैं कि अनेकांतवाद भगवान के शासन में पीछे से आया हुआ है परंतु वा शब्द अनेकांतवाद और स्यादवाद त्रिपदी में ही निहित है। एक ही द्रव्य अपेक्षा से उत्पन्न भी होता है, अपेक्षा से नष्ट भी होता है और अपेक्षा से ध्रुव भी होता है। कोई भी जीव या अजीव द्रव्य न तो केवल उत्पन्न हैं न तो केवल नाश होते है और न केवल हमेशा रहते है। विद्यमान सभी द्रव्य थे, हैं और हमेशा रहेंगे। जितने जीव और अजीव द्रव्य भूतकाल में थे, वर्तमान हैं और भविष्य में उतने ही रहेंगे। अनंतानंत काल होनेपर भी इसकी विद्यमानता कायम रहती है। केवल पर्याय मात्र बदलती है अर्थात् अवस्थांतर होते रहते हैं। - ऐसी महान त्रिपदी द्वादशांगी की माता है। वर्तमान में उपलब्ध भगवान की देशना स्वरुप द्वादशांगी सुधर्मा गणधर द्वारा रचित है। परमात्मा की अर्थ से कथित द्वादशांगी गणधर भगवंत शब्द से गूंथन करते है। प्रथम गणधर गौतम स्वामी का प्रभाव अचिंत्य था। सूर्य की किरण के आलंबन मात्र से अष्टापद चढना, पंद्रहसौ तापसो को एक
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