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________________ मुझे साथ देना होगा। व्यक्ति ने शेठ से कहा जब तेरे पास माल सामान था तब तू डरता था। अब तू क्यों भयभीत होता हैं? शेठ ने कहा महानुभाव सबसे बडा धन जीवनधन है। उसने मुझे लूट लिया पर मैं जीवनसे बच गया तो फिर से धन कमा लूंगा। पर मुझे मार डाला होता तो क्या होता? व्यक्ति ने दयाकर उसे हाथ पकडकर चलाया। असक्त और भूख से व्याकुल शेठ चल नहीं पाए तो उन्होंने अपने पास से कुछ भोजन दिया और सहारा देकर भयंकर रास्ते को पार करने की जिम्मेवारी ली। संसार में शेठ की जगह संसारी लोग हैं। विषय कषाय आदि चोर सत्त्व लुटकर मिथ्यात्त्व की पट्टी बाँधकर मोह के वृक्षपर उलटे लटका देते हैं। पुण्योदय से सद्गुरु आकर अभयदयाणं बनकर भयमुक्त करते है। चक्खुदयाणं बनकर मिथ्यात्त्व की पट्टी खोलते हैं। मग्गदयाणं बनकर मार्ग को निराबाध करते हैं। अकेले चलने को असमर्थ देखकर सरणदयाणं बनकर शरण देते हैं। जीवदयाणं बनकर सत्त्वसंपन्न करते हैं। बोहिदयाणं बनकर जन्म जन्म की भूखरुप अबोधि को टालते हैं। अस्तित्त्व का बोध कराते हैं। धम्मदयाणं बनकर धर्म का भाथा देखकर आगे मार्ग प्रशस्त करते हैं। शरण हम ग्रहण करते हैं आगे शरण्य हमारी किस तरह से प्रतिपालना या कामनापूर्ति करते हैं इसके बारे में हमें नहीं सोचना चाहिए। शरण्यभाव की चरमसीमा में उद्देश की पूर्ति सहज हो जाती हैं। भगवान ऋषभ देव के समय की एक घटना आप जानते होंगे। दीक्षित हो जानेपर परमात्मा कच्छ महाकच्छ आदि श्रमणों के साथ विचरण कर रहे थे। एकबार कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि भगवान की दीक्षा के पूर्व कहीं बाहर गए हुए थे। लौटनेपर उन्हें पता चला भगवान के साथ पिताजी भी दीक्षित हो गए हैं। भगवानने उपस्थित सभी संसारी राजा और राजपुत्रों को राज्य संपत्ति बाँट कर दीक्षित हो गए हैं। सोचने लगे अब हमारा क्या? हमारी राज्य व्यवस्था के बारे में हम किनसे समाधान प्राप्त करें ? कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित भगवान की ही शरण ग्रहण करते हैं और उनसे ही हमारी राज्य सत्ता का अधिकार माँगते हैं। ऐसा सोचकर वे परमात्मा की सेवा में रहने लगे। उन्होंने संकल्प लिया भले ही भगवान मौन रहो, साधना में रहो हम हमारी सेवा करते रहेंगे। वे स्वयं हमारे औचित्य को न्याय देंगे ऐसा सोचकर भगवान के नजदीक रहकर आसपास की भूमिकी सफाई करते थे, पानी का छंटकाव करते थे और भगवान के दोनों ओर नंगी तलवार लेकर खडे रहते थे। न कभी बैठते थे न कभी सोते थे। निरंतर शरण में रत थे। एकबार धरणेंद्र भगवान के पास वंदन करने आए थे। नमि विनमि को देखकर उन्हें प्रेम से पुछा तुम कौन हो? क्या उद्देश हैं तुम्हारा ? वास्तविकता जानकर उन्होंने सलाह दी भरत के पास जाकर तुम्हारे उद्देश की याचना करो। भगवान के बडे पुत्र होने के नाते उन्हें राज्य देने का अधिकार भी हैं। तब नमि विनमि ने कहा हम तो समग्र विश्व के स्वामी की सेवा में हैं। उनकी शरण में हैं। उनसे ही अपना अधिकार लेंगे। जब और जितना उनकी इच्छा होंगी तब देंगे। उनकी भक्ति को देखकर धरणेन्द्र प्रसन्न हो गए। कहने लगे धन्यवाद, धन्यवाद। मैं भगवान का भक्त नागराज धरणेन्द्र हूँ। तुम्हारी सेवा और उपासना देखकर यही स्वामी उपासना योग्य हैं ऐसी आपकी दृढ प्रतिज्ञा ने मुझे आनंद विभोर कर दिया हैं। मैं इन भगवान का दास हूँ और आप दोनों इन भगावन के सेवक हो। 155
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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