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उपसंपदा देते हुए कहते है - वत्स! प्रत्येक तीर्थंकरों ने भूत, भविष्य और वर्तमान में आत्महित हेतु पांच महाव्रत की उपसंपदा कही है। उन सभी अरिहंत प्रभु की साक्षी से प्रतिज्ञा करो कि - अत्तहियट्ठयाए उवसंपजित्ता णं विहरामि। आत्महित के लिए मैं उपसंपदा का स्वीकार करता हूँ। स्वयं की साक्षी से पांच महाव्रतो का पालन करना है। इसतरह गुरु परमात्मा के आज्ञा धर्म को शिष्य को प्रदान करते है। आज्ञा धर्म परमात्मा का आग्रह नहीं परंतु परित्तसंसारी बनने की अनुग्रह भरी व्यवस्था है।
___ खाना तो माँ भी सिखाती है परंतु उसे अनुग्रह में नहीं आग्रह में ही गिना। जैसे जैसे बच्चा खाना सिख लेता है वैसे वैसे माँ की प्रवृत्ति निवृत्ति ले लेती है। खाना, पीना, बैठना, चलना आदि सभी प्रवृत्तियाँ सिख लेनेपर माँ निवृत्त हो जाती है। चलना सिख लेनेपर बच्चा माँ को गोद में लेने का आग्रह करें तो माँ बच्चे को बाहर ले जाने की उपेक्षा करती है। माँ ऐसा क्यों करती है, क्योंकि वह बच्चे को उठा नहीं सकती है।
माँ का पार्ट पूरा हो जानेपर परमात्मा हमें खाना सिखाते है। आप सोचोगे अब क्या सिखना होता है? शास्त्रों के पेज खोलकर पढो। आपकी तरह मैं भी वैसा ही समझ रही थी। जब मैं चरणानुयोग का काम करती थी उसमें जब एषणासमिति का काम आया तब मुझे लगा था इसमें क्या होगा ये जल्दी हो जाएगा परंतु काम करनेपर पता चला कि पांचों समिति में एषणासमिति सबसे बडी है। एषणासमिति एक तरफ है और अन्य चार समिति एकतरफ है। इतना काम एषणा समिति में है। उसमें भी पात्रेषणा, वस्त्रेषणा, शयेषणा आदि अन्य एषणाओं से भी पिंडेषणा सबसे भारीभरखम है। पिंडेषणा अर्थात् खाने की एषणा अर्थात् गोचरी। पिंडेषणा के तीन प्रकार है -१. गवेषणा, २. ग्रहणेषणा और ३. ग्रासेषणा। गवेषणा अर्थात् गोचरी लेने जाना। ग्रहणेषणा अर्थात् गोचरी लेना बहेरना । ग्रासेषणा अर्थात् खाने की विधि। दीक्षा लेकर जब प्रथमबार गोचरी की चर्या करके वापस लौटे तब विधि अनुसार इर्यावहिया का कायोत्सर्ग किया। दूसरी प्रक्रिया होती है पूरा आहार सभी रत्नाधिकों के अर्थात् सभी बड़ों को दिखाने का और कहने का, साहुहुज्जामितारिओ। उसके बाद गोचरी ले सकते है। हम भी उस विधि विधान से निवृत्त होकर गोचरी वापरना शुरु करने लगे। इतने में ही गुरु महाराज ने रोका गोचरी कैसे वापरनी उस आज्ञा को पहले समझो। सचमुच उस दिन बहुत अचरज हुआ। गोचरी जाना लाना आदि में तो भगवान की आज्ञा होती है परंतु खाने में भी क्या आज्ञा होगी? गुरु आज्ञा भी महत्त्वपूर्ण है ऐसा मानकर गोचरी एक तरफ ढक कर रख दी और आज्ञा सुनने बैठ गए। भूख को भूला दी। एकाग्रता से गुरु वचन श्रवण किए। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि ऐसी भी आज्ञा होती है। मुख में एक साईड ग्रास रखकर उसे उसी ओर से चबाया जाए वह ग्रास दूसरी साईड में जाना नहीं चाहिए। कितनी विचित्र बात हैं न? गोचरी कब लेनी, कितनी लेनी, कैसे लेनी, कहाँ से लानी, किनसे लेनी आदि आदि तो सिद्धांत तो हो सकते है परंतु गोचरी के शुद्ध पदार्थों को मुख में रख देनेपर चबाना भी आज्ञानुसार। फिर भी इस आज्ञा पालन में अनहद आनंद था। अहो! आहार के इन पुद्गलों के कण कण पर प्रभु का आधिकार है। इसे अपने अधिकार का पदार्थ समझकर इच्छा से खाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। यह प्रभु का
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