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जैनदर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिसे अधिकार हमें है भी क्या ?
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अब मूल प्रश्न की ओर मुड़े ।
जब अहिंसा को हमने अपने धर्म की धुरी के रूप में प्रतिष्ठित किया तब आवश्यकता हुई हिंसा के क्षेत्रों को पहचान लेने की । उस खोज़ के दौरान हमने पानी को उसके सही रूप में देखा, समझा और घोषणा की- 'पानी जीवों का पुंज हैं' । कुछ समय बीता । उलझन सामने आयी/अहिंसा और पानी दोनों को साथ-साथ कैसे चलायें ? छोड़े भी तो किसे ? अहिंसा पर हमारा धर्म टिका था और पानी पर हमारे प्राण । समस्या बड़ी थी । मगर बिना - पैसे हर घर में सुलभ किसी एक चीज को खोजने के लिए तीसरे नेत्र की ज़रूरत नहीं पड़ी और कल्पना के धनी किसी व्यक्ति ने राख-लीला रचा कर आत्म-तुष्टि के साथ-साथ आलोचकों का मुँह भी बंद कर दिया ।
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अचित्त पानी की परिकल्पना कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में स्वयं को और दूसरों को भुलावा देने की बुनियाद पर की गयी, अन्यथा जिस विधि से हम पानी को अचित्त करते हैं उस विधि से इस धरती का अधिकांश पानी पहले से ही अचित्त हुआ होता है - यह बात हमसे छिपती नहीं । न बरसात के जिस पानी को हम सबसे ज्यादा सचित्त मानते हैं ठीक उसी तरह के पानी को बहुत ही सावधान साधु-साध्वियों और उतने ही जागरू क श्रावक-श्राविकाओं द्वारा रोज़ पीते रहने की बात ही हमारी दृष्टि- परिधि से बाहर जाती ।
कथ्य को थोड़ा स्पष्ट करूँ ।
हवा और पानी दोनों के अवयवों और गुणों के मूलभूत अन्तर के बावजूद कुछ दृश्यमान समानताएँ भी हैं । जिस समानता से अभी हमारा प्रयोजन है, वह दोनों के ही साधारणतः अपने विशुद्ध रूप में न मिलने की । धरती के विभिन्न पदार्थ अपने विभिन्न रूपों में इनसे मिलते रहते हैं । हवा में मिले असंख्य धूलि - कणों को खिड़की, या रोशनदान से आती सूर्य की किरणों में हम हमेशा देखते हैं । पानी में मिले विजातीय पदार्थ उसमें घुल जाने के कारण कई बार इस तरह दृष्टिगोचर नहीं होते, मगर उनकी मात्रा हवा में मिली अशुद्धियों से कहीं ज्यादा है । ऐसा स्वाभाविक भी है; क्योंकि पानी प्रक्षालन का एकमात्र साधन है और हर समय हवा तथा अन्य चीजों के सीधे सम्पर्क में रहता है । राख और चूना मनुष्य की विभिन्न क्रियाओं के फलस्वरूप रोज़ प्रचुर मात्रा में पैदा होते हैं और सर्वत्र फैले होने के कारण बड़ी सुगमता से पानी में मिलते रहते हैं । नदियाँ तो हमारे लिए जैसे विसर्जन स्थल है । उनके अगल-बगल लगे पंक्तिबद्ध कारखाने एवं उनके किनारे-जलतीं लाखों चिताएँ राख एवं समगुण वाले अन्य कार्बनिक पदार्थ टनों की मात्रा में उनमें उड़ेलते रहते है; अत: नदियों का पानी अन्य किसी भी कारण त्याज्य हो सकता है, मगर राख की कमी के कारण नहीं ।
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राख के अलावा और बहुत-सी चीजों को मिलाने से भी लगता है पानी सचित्त नहीं रहता अथवा वैसे रहते हुए भी कुछ दूसरी मान्यताओं के अन्तर्गत ग्राह्यं हो जाता है । नीबू के रस की