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जैनदर्शन :वैज्ञानिक दृष्टिसे शब्दों को अन्तिम सत्य, उनसे उलझना मेरा मन्तव्य नहीं; मगर हर स्थिति को अन्तिम परिणति मान लेना, जो जहाँ है, जैसा है उसे स्थायी रूप से स्वीकार कर लेना प्रगति को रोकता है । अच्छाइयों की कोई सीमा नहीं होती । सुधार की संभावनाएँ कभी समाप्त नहीं होती । बल्कि हर चीज को ओर भी परिष्कृत एवं परिमार्जित करने की प्रवृत्ति और उस दिशा में सतत प्रयास ही मनुष्य को दूसरे जीवों से अलग करते हैं । तो जब तक यह धरती धूमती है, हमारी चिन्तनसरिता बहती रहे यही इष्ट है । प्रस्तुत लेख इस गतिशीलता और विकासवाद में मेरी आस्था का अंकन है।
पाका पानी पानी सजीव चीज है । एक प्राणवान् वस्तु है । जैनधर्म के प्रवर्तकों ने इस बात को सब से पहले समझा और तभी से हमलोगों की मान्यता रही कि एक बूंद पानी में असंख्य जीव होते हैं । इस बात को दूसरे शब्दों में ऐसे भी रखा जा सकता है कि कुछ विशेष जीवों के समूह का नाम ही पानी है । पानी अधिकांश-संभवतः सब जीवों का उद्गम है - इस सृष्टि के सब प्राणियों के जन्म एवं विकास में प्रमुख रूप से जुड़े रहने की क्षमता रखता है ।
हमलोग पानी को उसके प्राकृतिक रूप में न पी कर उसमें थोड़ी राख या चूना मिला कर उपयोग करने को पाप-और-पुण्य की दृष्टि से अधिक निर्दोष मानते हैं । राख, या चूना मिले इस पानी को साधारण बोलचाल की भाषा में ऐसा पानी 'पाका पानी' कहा जाता है, मगर इस संदर्भ में 'पाका' शब्द का अर्थ मैं ठीक से नहीं समझ पाया । ऐसा पानी 'पाका' 'पका' या 'पक्का' इन तीनों में से कौन से शब्द के अर्थ के नजदीक पहुँचता है - यह मैं पाका पानी पीने वाले कई व्यक्तियों से बात करके भी नहीं जान सका । जो हो, प्रस्तुत विवेचन में इसके तकनीकी नाम-अचित्त पानी - का प्रयोग ही मुझे ज्यादा निरापद लग रहा है ।
मान्यता है कि जीवों के मरने और जन्मने की अखण्ड प्रक्रिया जो साधारण पानी में चलती है वह राख या चूना मिला कर अचित्त किये पानी में बन्द हो जाती है अर्थात् जन्म-एवं मृत्यु की व्याधियों से दूर-ऐसा पानी मोक्ष पानी, मोक्ष-पहुँचा-हुआ-सा हो जाता है ।
यह मान्यता सदियों से चली आ रही है और हज़ारों व्यक्तियों ने आज भी बिना किसी हिचक के इसे दैनिक जीवन में कर्म-निर्जरा (पाप रोकने) का मुख्य साधन मान रखा है । ऐसी स्थिति में अचित्त पानी की कल्पना को बुनियादी तौर पर ग़लत कहने से पहले एक बार इस प्रक्रिया को सही मान कर इसके वर्तमान व्यावहारिक रूप का. यह देख लेने के लिए कि वह इच्छित लाभ प्रदान करने में समर्थ है या नहीं, अवलोकन कर लेना अधिक न्यायसंगत होगा ।
सचित्त और अचित्त पानी में, जैसा कि हम लोगों ने मान रखा है, बहुत बड़ा अन्तर है । इतना बड़ा परिवर्तन बिना किसी जटिल प्रक्रिया के संभव नहीं लगता । जटिल हो, न हो; ऐसी प्रक्रिया में कम-से-कम प्रामाणिकता का भाव, एक निश्चितता का अंश अवश्य होना चाहिये; मगर ऐसा कुछ है नहीं । राख और चूने की, जो पानी को अचित्त बनाने के दो सर्वाधिक प्रचलित माध्यम हैं, कोई मात्रा निश्चित नहीं है । किस अनुपात में दोनों चीजों को मिलाने से वांछित