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Jainism Through Science
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नहीं ?
उत्तर : पूज्यपाद श्री विजयदानसूरीश्वरजी तथा पूज्य श्री विजयहीरसूरीश्वरजी से ऐसा सुना है कि शेष काल में और चातुर्मास में प्रतिक्रमण, योग के अनुष्ठान इत्यादि क्रिया में बिजली का प्रकाश हो तो अतिचार लगता है, क्रिया अतिचार-युक्त होती है, कालग्रहण का भंग होता है ।
प्रश्न : चन्द्र के प्रकाश में दीपक इत्यादि के प्रकाश की स्पर्शना होती है या नहीं ?
उत्तर : यदि शरीर को चन्द्र का प्रकाश लगता हो तो दीपक इत्यादि के प्रकाश की स्पेशना नहीं होती है, किन्तु शरीर को चन्द्र का प्रकाश न लगता हो तो दीपक इत्यादि के प्रकाश की स्पर्शना होती है, ऐसी परम्परा है, और खरतरकृत संदेह दोलावली में भी ऐसा बताया गया है ।
विक्रम के 14 वें शतक में खरतरगच्छीय आचार्य श्रीमज्जिनवल्लभसूरि के शिष्य आ. श्री जिनदत्तसूरि ने 'संदेह दोलावली' प्रकरणकी रचना की है । यह ग्रन्थ भी प्रश्नोत्तर रूप में है। इस ग्रंथ की गाथा 41 और 42 की वृत्ति में इस बात का निर्देश प्राप्त होता है और उसी समय से प्रकाश को सजीव मानने की परम्परा शुरू हुई होगी ऐसा प्रतीत होता है । यद्यपि 'संदेह दोलावली' प्रकरण की मूल गाथा से ऐसा कोई अर्थ प्राप्त होता नहीं है; किन्तु वाचनाचार्य श्री प्रबोधचन्द्र गणि ने बृहद् वृत्ति में इसकी विस्तृत चर्चा की है । सार इस प्रकार है :
प्रतिक्रमण की क्रिया करने वाले मनुष्य (साधु या गृहस्थ) विद्युत्, प्रदीप इत्यादि का यदि दो बार या चार बार स्पर्श करें या बहुत बार स्पर्श करें तो उन्हें प्रायश्चित करना पड़ता है । यहाँ इत्यादि शब्द से पृथ्वीकाय आदि अन्य सचित्त द्रव्य लिये गये हैं अर्थात् सामायिक, प्रतिक्रमण आदि में सचित्त द्रव्यों का स्पर्श नहीं करना चाहिये । अग्नि, दीपक आदि सचित्त होने से, उनका स्पर्श नहीं करना चाहिये । 'संदेह दोलावली' की इन गाथाओं में 'विद्युत्' शब्द है अत: उसका अर्थ 'आकाश में होने वाली बिजली' लेना है, जो सजीव है; किन्तु सामायिक प्रतिक्रमण की क्रियायुक्त मनुष्य उसका स्पर्श नहीं कर सकता; अतः टीकाकार वाचनाचार्य और अन्य 'विद्युत्' शब्द से बिजली का प्रकाश ग्रहण करते हैं । अतः उसी समय से किसी भी प्रकार के अग्नि का प्रकाश सचित्त है, ऐसी मान्यता प्रचलित हुई होगी ऐसा अनुमान है ।
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दूसरी ओर 'संदेह दोलावली' के वृत्तिकार चन्द्र के प्रकाश में दीपक इत्यादि के प्रकाश की स्पर्शना होती है या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर देते समय भी इसी प्रकार की चर्चा करते हैं ।
वे कहते है कि चन्द्र, सूर्य इत्यादि के विमान की प्रभा से या प्रकाश से उजेही (स्पर्शना) तो होती ही है; किन्तु वह अपरिहार्य है । तुरन्त ही वे दूसरा उत्तर यह देते है कि सूर्य, चन्द्र के प्रकाश का मात्र स्पर्श होता है; किन्तु उसके निर्जीव होने से विराधना (जीव-हिंसा) संभव नहीं है ।
पुन: आगे चर्चा करते हुए वे स्वयं पंचमांग श्री भगवती सूत्र या व्याख्या- प्रज्ञप्ति सूत्र का उद्धरण देते हुए सूर्य-चन्द्र के प्रकाश की सचित्तता के बारे में शंका उपस्थित करते है और स्वयं
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