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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा १५ पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् भावार्थ - जिस पुरुष को भोग की तृष्णा नहीं है, वही सब मनुष्यों को नेत्र के समान उत्तम मार्ग दिखानेवाला है। जैसे उस्तरे का अंतिम भाग और चक्र का अन्तिम भाग ही चलता है, इसी तरह मोहनीय कर्म का अन्त ही संसार को क्षय करता है। टीका - हुरवधारणे, स एव प्राप्तकर्मविवरोऽनीदृशस्य खेदज्ञो भव्यमनुष्याणां चक्षुः-सदसत्पदार्थाविर्भावनान्नेत्रभूतो वर्तते, किंभूतोऽसौ ?, यः 'काङ्क्षायाः' भोगेच्छाया अन्तको विषयतृष्णायाः पर्यन्तवर्ती। किमन्तवर्तीति विवक्षितमर्थ साधयति ?, साधयत्येवेत्यमुमर्थं दृष्टान्तेन साधयन्नाह-'अन्तेन' पर्यन्तेन 'क्षुरो' नापितोपकरणं तदन्तेन वहति, तथा चक्रमपि-रथाङ्गमन्तेनैव मार्गे प्रवर्तते, इदमुक्तं भवति-यथा क्षुरादीनां पर्यन्त एवार्थक्रियाकारी एवं विषयकषायात्मकमोहनीयान्त एवापसदसंसारक्षयकारीति ॥१४॥ टीकार्थ - 'ह' शब्द अवधारण अर्थ में आया है। जिसने कर्म के विवर को प्राप्त किया है तथा जो सर्वोत्तम संयम अथवा तीर्थङ्करोक्त धर्म में निपुण है, वही पुरुष भव्य जीवों का नेत्र है। वह भले और बुरे पदार्थों को प्रकट करने के कारण भव्य जीवों के नेत्र के समान है। वह पुरुष कैसा है ? सो शास्त्रकार बतलाते हैं-जो पुरुष भोग की इच्छा के अन्त में है अर्थात् जो विषयतृष्णा के पर्य्यन्त में स्थित है, वही नेत्र के सदृश है । विषय तृष्णा के अन्त में रहनेवाला पुरुष क्या इष्ट वस्तु की सिद्धि कर लेता है ? हाँ, अवश्य कर लेता है, यह दृष्टान्त के द्वारा सिद्ध करते हुए शास्त्रकार कहते हैं। जिसके द्वारा नाई बाल काटता है, वह उस्तरा अंतिम भाग से ही अपना कार्य करता है तथा रथ का चक्का भी अन्तिम भाग से ही मार्ग में चलता है। आशय यह है कि-जैसे उस्तरा आदि का अन्तिम भाग ही कार्य का साधक है, इसी तरह विषय और कषाय स्वरूप मोहनीय कर्म का अन्त ही इस दुःखरूप संसार का क्षय करनेवाला है ॥१४॥ - अमुमेवार्थमाविर्भावयन्नाह - पूर्व गाथा में वर्णित अर्थ को ही स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार कहते हैंअंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह । इह माणुस्सए ठाणे, धम्ममाराहिउंणरा ॥१५॥ छाया - अन्तान् धीराः सेवन्ते तेनान्तकरा इह । इह मनुष्यके स्थाने, धर्ममाराधयितुं नराः ॥ अन्वयार्थ - (धीरा अंताणि सेवंति) विषय सुख की इच्छा रहित पुरुष अन्तप्रान्त आहार का सेवन करते हैं (तेण इह अंतकरा) इस कारण वे संसार का अन्त करते हैं (इह माणुस्सए ठाणे णरा धम्ममाराहिउं) इस मनुष्य लोक में दूसरे मनुष्य भी धर्म की आराधना करके संसार का अन्त करते हैं। भावार्थ - विषय सुख की इच्छा रहित पुरुष अन्तप्रान्त आहार का सेवन करके संसार का अन्त करते हैं । इस मनुष्य लोक में धर्म का सेवन करके जीव संसार सागर से पार हो जाते हैं। टीका - 'अन्तान्' पर्यन्तान् विषयकषायतृष्णायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वाऽन्तप्रान्तादीनि 'धीराः' महासत्त्वा विषयसुखनिःस्पृहाः 'सेवन्ते' अभ्यस्यन्ति, तेन चान्तप्रान्ताभ्यसनेन 'अन्तकराः' संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणः क्षयकारिणो भवन्ति, 'इहे'ति मनुष्यलोके आर्यक्षेत्रे वा, न केवलं त एव तीर्थङ्करादयः अन्येऽपीह मानुष्यलोके स्थाने प्राप्ताः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं धर्ममाराध्य 'नराः' मनुष्याः कर्मभूमिगर्भव्युत्क्रान्तिज-संख्येयवर्षायुषः सन्तः सदनुष्ठानसामग्रीमवाप्य 'निष्ठितार्था' उपरतसर्वद्वन्द्वा भवन्ति ॥१५॥ टीकार्थ - विषय सख की स्पहा से रहित पुरुष, विषय और कषाय की तष्णा के अन्त का सेवन हैं अथवा विषय और कषाय की तृष्णा की शुद्धि के लिए बगीचे आदि के प्रान्त भाग को अथवा अन्त प्रान्त आहार का सेवन करते हैं । उस अन्त प्रान्त के अभ्यास से वे संसार का अन्त करते हैं अथवा संसार का कारण जो कर्म है, उसका क्षय करते हैं । इस मनुष्य लोक में अथवा आर्य क्षेत्र में केवल तीर्थङ्कर आदि ही नहीं किन्तु
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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