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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा १८ - १९ नरकाधिकारः अति प्रदीप्त अग्नि के पास जाते हैं, वह नरक की अग्नि बड़ी दाहक होती है, उसमें वे बिचारे जलने लगते हैं, अतः उनको वहाँ थोड़ा भी सुख नहीं मिलता है । उस अग्नि में वे निरन्तर जलते रहते हैं, इसलिए उन्हें यद्यपि महान् ताप होता है तथापि नरकपाल उन पर गरम तेल छिटककर और ज्यादा जलाते हैं ||१७|| से सुच्चई नगरवहे व सद्दे, दुहोवणीयाणि पयाणि तत्थ ! | उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुर्हेति छाया - अथ श्रूयते नगरवध इव शब्दः, दुःखोपनीतानि पदानि तत्र । उदीर्णकर्मण उदीर्णकर्माणः पुनः पुनस्ते सरभसं दुःखयन्ति ॥ अन्वयार्थ - (से) इसके पश्चात् (तत्थ) उस नरक में (नगरवहे व सद्दे ) नगरवध के समान शब्द ( सुच्चई) सुनाई पड़ते हैं (दुहोवणीयाणि पयाणि) तथा वहाँ करुणामय पद सुनाई पड़ते हैं । (उदिण्णकम्मा) मिथ्यात्व आदि के उदय में वर्तमान परमाधार्मिक (उदिण्णकम्माण) जिन का पापकर्म फल देने की दशा में आया है, ऐसे नारकी जीवों को (पुणो पुणो ) बार-बार ( सरहं) बड़े उत्साह के साथ ( दुर्हेति ) दुःख देते हैं । भावार्थ - जैसे किसी नगर का नाश होते समय नगरवासी जनता का महान् शब्द होता है, उसी तरह उस नरक में महान् शब्द सुनाई देता है और शब्दों में करुणामय शब्द सुनाई पड़ते हैं । मिथ्यात्व आदि कर्मों के उदय में वर्तमान परमाधार्मिक जिनका पापकर्म फल देने की अवस्था में उपस्थित है, ऐसे नारकी जीवों को बड़े उत्साह के साथ बार-बार पीड़ा देते हैं । टीका से शब्दोऽथशब्दार्थे, 'अथ' अनन्तरं तेषां नारकाणां नरकपालै रौद्रैः कदर्थ्यमानानां भयानको हाहारव-प्रचुर आक्रन्दनशब्दो नगरवध इव 'श्रूयते' समाकर्ण्यते, दुःखेन पीडयोपनीतानि - उच्चारितानि करुणाप्रधान यानि पदानि हा मातस्तात ! कष्टमनाथोऽहं शरणागतस्तव त्रायस्व मामित्येवमादीनां पदानां 'तत्र' नरके शब्दः श्रूयते, उदीर्णम् - उदयप्राप्तं कटुविपाकं कर्म येषां ते तथा तेषां तथा 'उदीर्णकर्माणो' नरकपाला मिथ्यात्व हास्यरत्यादीनामुदये वर्तमानाः 'पुनः पुनः' बहुशस्ते 'सरहं (दुहें) ति' सरभसं-सोत्साहं नारकान् 'दुःखयन्ति' अत्यन्तमसह्यं नानाविधैरुपायैदुःखमसातवेदनीयमुत्पादयन्तीति ॥१८॥ तथा - टीकार्थ 'से' शब्द अथ शब्द के अर्थ में आया है । इसके पश्चात् भयङ्कर परमाधार्मिकों के द्वारा पीड़ित किये जाते हुए उन नारकी जीवों को हाहाकार से भरा हुआ भयानक रोदन शब्द नगर के वध के समान सुनाई पड़ता है । तथा उस नरक में दुःख के साथ उच्चारण किये हुए करुणा प्रधान पद सुनाई पड़ते हैं । जैसे कि - हे मात: हे तात ! मैं अनाथ हूं। मैं तुम्हारा शरणागत हूं, तूम मेरी रक्षा करो इत्यादि पदों का शब्द उस नरक में सुनाई पड़ता है । जिनका कटु फल देनेवाला कर्म उदय को प्राप्त है ऐसे नारकी जीवों को मिथ्यात्व, हास्य, और रति आदि के उदय में वर्तमान नरकपाल, बार-बार उत्साह के साथ नाना प्रकार के उपायों से अत्यन्त असह्य दुःख देते हैं ||१८|| ३१४ ।।१८।। - पाणेहि णं पाव विओजयंति, तं भे पवक्खामि जहातहेणं । दंडेहिं तत्था सरयंति बाला, सव्वेहिं दंडेहि पुराकएहिं छाया - प्राणैः पापा वियोजन्ति, तद् भवद्भ्येः प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन । दण्डैस्तत्र स्मरयन्ति बालाः सर्वैः दण्डैः पुराकृतेः ॥ ।।१९॥ अन्वयार्थ - (पाव) पापी नरकपाल (पाणेहि विओजयंति ) नारकी जीवों के अशों को काटकर अलग-अलग कर देते हैं (तं) इसका कारण (भे) आपको (जहातहेणं) ठीक-ठीक (पवक्खामि ) मैं बताता हूँ (बाला) अज्ञानी नरकपाल (दंडेहि) नारकी जीवों को दण्ड देकर (सव्वेहिं पुराकएहिं दंडेर्हि) उनके पूर्वकृत सब पापों को (सरयंति) स्मरण कराते हैं ।
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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