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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ४
नरकाधिकारः टीकार्थ- राग और द्वेष से भरे हुए जो मनुष्य और तिर्यश्च, महारम्भी और महापरिग्रही हैं तथा पञ्चेन्द्रियों के घात और मांसभक्षण आदि सावध अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं एवं असंयम जीवन की इच्छा से इस संसार में पाप को उत्पन्न करनेवाले कार्यों को करते हैं तथा प्राणियों को भय उत्पन्न करने के कारण जो भयानक होक हिंसा और मिथ्याभाषण आदि कर्म करते हैं, वे ऐसे प्राणी तीव्रपाप के उदय में वर्तमान होकर अत्यन्त भयानक एवं जहाँ अपने नेत्र से अपना शरीर भी नहीं देखा जा सकता है तथा अवधि ज्ञान के द्वारा भी दिन में उलूक पक्षी की तरह जहाँ थोड़ा थोड़ा देखा जाता है ऐसे भयंकर अन्धकार युक्त नरक में गिरते हैं। इस विषय में आगम का कहना भी यह है
(किण्हलेसेणं भंते) अर्थात् हे भदन्त ! कृष्णलेश्यावाला नारकी जीव कृष्णलेश्यावाले नारकी जीव को अवधिज्ञान के द्वारा चारो तर्फ देखता हुआ कितने क्षेत्रतक जानता है तथा कितने क्षेत्र तक देखता है ? (उ) हे गौतम ! बहुत क्षेत्र तक नहीं जानता तथा बहुत क्षेत्रतक नहीं देखता किन्तु थोड़े क्षेत्र तक जानता है और थोड़े ही क्षेत्र तक देखता है इत्यादि ।
तथा वह नरक तीव्र अर्थात् दुःसह यानी खैर के अङ्गारों की महा राशि से भी अनन्त गुण अधिक ताप से युक्त है, ऐसे बहुत वेदनावाले नरकों में विषय सुख का त्याग न करनेवाले गुरुकर्मी जीव पड़ते हैं और वे वहाँ नाना प्रकार की वेदनाओं को प्राप्त करते हैं। कहा है कि
"अच्छड्डिय विसयसुहो" अर्थात् जो पुरुष विषय सुख को नहीं छोड़ता है, वह जिसमें जलती हुई आग की शिखा समूह विद्यमान है तथा जो संसार सागर का प्रधान दुःख का स्थान है, ऐसे नरक में गिरता है । जिस नरक में नारकी जीवों की छाती को परमाधार्मिक इस प्रकार पैर से कुचलते हैं कि वे मुख से रुधिर का गण्डूष फेंकते हैं तथा आरा के द्वारा चीरकर उनके शरीर दो भागों में विभक्त कर दिये जाते हैं । जिस नरक में भेदन किये जाते हुए प्राणियों के कोलाहल से सब दिशायें परिपूर्ण हो जाती हैं, तथा जलते हुए नारकी जीवों की खोपडी
और हड्डियाँ शब्द करती हुई उछलती हैं, जहाँ पीड़ा के कारण नारकी जीव अत्यन्त चिल्लाते हुए शब्द करते हैं तथा कड़ाहों में मैंनकर उनके पाप कर्म का फल दिया जाता है एवं शूल से वेधकर उनका शरीर ऊपर उठाया जाता है । जहाँ भयंकर शब्द होता है, भयङ्कर अन्धकार एवं उत्कट दुर्गन्ध जहाँ विद्यमान है तथा नारकी जीवों के बाँधने का घर और जहाँ असह्य क्लेश दिया जाता है तथा कटे हुए हाथ पैर से मिला हुआ जहाँ रक्त और चर्बी का दुर्गम प्रवाह है। जहाँ निर्दयता के साथ नारकी जीवों का शिर काटकर शिर अलग और धड़ अलग फेंक दिया जाता है तथा जलती हुई सँडासी के द्वारा जहाँ नारकी जीवों की जीभ उखाड़ ली जाती है। जहाँ तीक्ष्णनोंकवाले काँटेदार वृक्षों में नारकी जीवों का शरीर रगड़कर जर्जर कर दिया जाता है, इस प्रकार जहाँ निमेष मात्र भी प्राणियों को सुख प्राप्त नहीं होता किन्तु लगातार दुःख होता रहता है, ऐसे भयङ्कर नरकों में नाना प्रकार के प्राणियों का वध करनेवाले मिथ्यावादी एवं पापराशि को उत्पन्न करनेवाले पुरुष जाते हैं ॥३॥
तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसती आयसुहं पडुच्चा । जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि
॥४॥ छाया - तीव्र प्रसान् स्थावरान् यो हिनस्त्यात्मसुखं प्रतीत्य ।
___ यो लूषको भवत्यदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किञ्चित् ॥
अन्वयार्थ - (जे आयसुहं पडुच्चा) जो जीव अपने सुख के निमित्त (तसे थावरे य, पाणिणो तिव्वं हिंसती) त्रस और स्थावर प्राणी को तीव्रता के साथ हनन करता है (जे लूसए अदत्तहारी होइ) तथा जो प्राणियों का मर्दन करनेवाला और बिना दिये दूसरे की चीज लेनेवाला है (सेयवियस्स किंचि ण सिक्खती) तथा जो सेवन करने योग्य संयम का थोड़ा भी सेवन नहीं करता है ।
भावार्थ - जो जीव अपने सुख के, निमित्त त्रस और स्थावर प्राणियों का तीव्रता के साथ हनन करता है तथा प्राणियों का उपमर्दन और दूसरे की चीज को बिना दिये ग्रहण करता है, एवं जो सेवन करने योग्य संयम का थोडा भी पालन नहीं करता है।
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