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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः प्रस्तावना नरकाधिकारः आदि से वेध करना, तथा सूई आदि से नासिका छेदना, एवं रस्सी आदि से क्रूर कर्म करनेवाले जीवों को बाँधते हैं। तथा उस तरह लता के प्रहार से ताड़न करते हैं । इस प्रकार शातन, पातन, वेधन और बन्धन आदि बहुत प्रकार के दुःख पापियों को नरकपाल देते हैं । तथा सबल नामवाले, नरकपाल, उस प्रकार के कर्म के उदय होने से नारकी जीवों को कष्ट देने में बहत आनन्द मानते हैं, वे पापी नारकी जीवों को जो कष्ट देते हैं, सो दिखलाते हैं सबल नामवाले नरकपाल नारकी जीवों की अंतडी को काटकर उसमें रहनेवाला मांस विशेष रूप फेफसे को तथा हृदय को एवं हृदय में रहनेवाले कलेजे को चीरते हैं, तथा पेट में रहनेवाली अंतडी को एवं चमडे को खींचते हैं। वे अनेक उपायों से शरणरहित नरक के जीवों को तीव्र वेदना उत्पन्न करते हैं। एवं नाम के अनुसार पीडा देनेवाले, रौद्र (भयानक) कर्म करनेवाले रौद्र नामक नरकपाल, तलवार और शक्ति आदि के नाना प्रकार के शस्त्रों में अशुभ कर्म के उदय में वर्तमान नारकी जीवों को गूंथते हैं । तथा उपरुद्र नामवाले परमाधार्मिक, नारकी जीवों के शिर, भुजा, उरू, हाथ और चरण आदि अङ्ग प्रत्यङ्गों को तोड़ते हैं तथा कल्पनी यानी आरी से चीरते हैं, वस्तुतः ऐसा कोई भी दुःख नहीं है, जो वे पापी उत्पन्न नहीं करते हैं । तथा काल नामवाले नरकपाल दीर्घ चुल्ली, शुण्ठक, कन्दुक और प्रचण्डक नामवाले तीव्र तापयुक्त स्थानों में नारकी जीवों को पकाते हैं । तथा ऊंट की आकारवाली कुम्भी में एवं लोह की कड़ाही में नारकी जीवों को डालकर जीवित मच्छली की तरह पकाते हैं । एवं पापकर्म करने में रत महाकाल नामवाले नरकपाल, नाना प्रकार के उपायों से नारकी जीवों को पीड़ा देते हैं- जैसे कि - वे नारकी जीवों को काटकर कौड़ी के बराबर मांस का टुकडा स्वरूप बनाते हैं तथा पीठ की चमड़ी को काटते हैं तथा जो नारकी पहले मांसाहारी थे उनको उनका ही मांस खिलाते | तथा असि नामवाले नरकपाल, अशुभ कर्म के उदय में वर्तमान नारकी जीवों को इस प्रकार पीड़ा देते हैं, जैसे कि- हाथ, पैर, उरू, बाहु, शिर और पार्श्व आदि अङ्ग प्रत्यङ्गों को अत्यन्त खण्ड-खण्ड करते हैं । यहाँ 'तु' शब्द दूसरे को विशेष रूप से दुःख उत्पन्न करने की बात बताता है । एवं जिनका प्रधान शस्त्र तलवार है, ऐसे पत्रधनुष नामवाले नरकपाल असिपत्र वन को बीभत्स बनाकर वहाँ छाया के लिए आये हुए बिचारे नारकी जीवों को तलवार आदि के द्वारा काटते हैं । तथा कान, ओष्ठ, नाक, हाथ, पैर, दाँत, छाती, चूतड़, जङ्घा और भुजा का छेदन, भेदन और शातन आदि स्वयं पवन चलाकर तलवार के समान पत्तों के द्वारा करते हैं। कहा है कि(छिन्न) अर्थात् पैर, भुजा, कन्धा, कान, नाक और ओष्ठ छेद डालते हैं तथा तालु, माथा, पुरुष का चिन्ह, आँख, हृदय और पेट फाड़ देते हैं तथा कुम्भी नामवाले नरकपाल, नरक में रहनेवाले नारकी जीवों को मारते हैं और पकाते हैं, कहाँ ? सो दिखलाते हैं - ऊंट के समान आकारवाली कुम्भी में तथा कड़ाही के समान आकारवाले लोह के पात्र विशेष में एवं गेंद के समान आकारवाली लोह की कुम्भी में तथा कोठी के समान आकारवाली कुम्भी में तथा इस तरह के दूसरे पात्रों में परमाधार्मिक नारकी जीवों को पकाते हैं तथा बालुका नामवाले परमाधार्मिक, रक्षक रहित नारकी जीवों को गर्म बालुका से पूर्ण पात्र में चने की तरह तड़तड़ शब्द सहित पूँजते हैं । वे किस पात्र में पूंजते हैं? सो बताते हैं- कदम्ब के फूल के समान तप्त होने से लाल जो वालुका है उसे 'कदम्बवालुका' कहते हैं, उस बालुका के ऊपर नारकी जीवों को रखकर आकाशतल में वे इधर-उधर फिराकर पूँजते हैं। तथा वैतरणी नामवाले नरकपाल वैतरणी नदी को विकृत कर देते हैं, उस वैतरणी नदी में पीव, रक्त, केश और हड्डियाँ बहती रहती हैं तथा वह बड़ी भयानक है, उसमें कलकल करती हुई जलधारा बहती है तथा उसका जल खारा और गर्म होता है और उसे देखने से घृणा उत्पन्न होती है, उस नदी में नारकी जीवों को परमाधार्मिक बहा देते हैं । तथा खरस्वर नामवाले परमाधार्मिक नारकी जीवों को इस प्रकार पीड़ा देते हैं। नारकी जीवों के शरीर को खम्भे की तरह सूते से मापकर मध्य भाग में आरा के द्वारा चीरते हैं, तथा उन्हीं नारकी जीवों को परस्पर कुठार के द्वारा कटवाते हैं, इस प्रकार उनके शरीर के अवयवों को छिलकर पतला करते हैं । एवं वज्र के बने हुए भीषण काँटावाले सेमर के वृक्ष पर चिल्लाते हुए नारकी जीवों को वे चढ़ाते हैं और चढे हए ३००
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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