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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा ६-७ परसमयवक्तव्यतायांअज्ञानवादाधिकारः क्योंकि वे लोग जब नियति को ही सबका कर्ता मानते हैं, तब फिर उनकी परलोक की क्रिया व्यर्थ ठहरती है। अथवा जो पाश के समान है, उसे 'पाश' कहते हैं । वह पाश, कर्मबन्धन है । वह कर्मबन्धन, यहाँ युक्ति रहित नियतिवाद का निरूपण करना है, उसमें स्थित वे नियतिवादी पाशस्थ हैं । दूसरे एकान्तवादी जो काल तथा ईश्वर आदि को ही सबका कर्ता मानते हैं, उन्हें भी पार्श्वस्थ अथवा पाशस्थ समझना चाहिए । वे नियतिवादी "सब कुछ नियति से ही होता है", इस सिद्धान्त को मानकर भी अनेक प्रकार की अथवा विशेष रूप से धृष्टता करते हुए परलोक साधक क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । उनकी धृष्टता तो यह है कि वे "सब कुछ नियति से ही होता है" इस सिद्धान्त को मानते हुए भी इस सिद्धान्त के विरोधी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । अतः परलोक साधक क्रिया में प्रवृत्त होकर भी वे अपने आत्मा को दुःख से मुक्त नहीं कर सकते हैं । वे सम्यक् प्रकार से (ज्ञानपूर्वक) क्रिया में प्रवृत्त नहीं है, इसलिए वे अपने आत्मा को दुःख से मुक्त नहीं कर सकते । नियतिवादी का मत समाप्त हुआ ||५|| - साम्प्रतमज्ञानिमतं दूषयितुं दृष्टान्तमाह - ___- अब अज्ञानियों के मत को दूषित करने के लिए सूत्रकार दृष्टान्त बतलाते हैं - जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वज्जिआ । असंकियाइं संकंति, संकिआइं असंकिणो ॥६॥ छाया - जविनो मृगा यथा सन्तः परित्राणेन वर्जिताः । अशङ्कितानि शन्ते शड्किताव्यशक्षिनः ॥ परियाणिआणि संकेता, पासिताणि असंकिणो। अण्णाणभयसंविग्गा संपलिंति तर्हि तर्हि ॥७॥ छाया - परित्राणितानि शङ्कमानाः पाशिताव्यशतिनः । अज्ञानभयसंविग्नाः सम्पर्य्ययन्ते तत्र तत्र ॥ व्याकरण - (जविणो) मृग का विशेषण (मिगा) कर्ता (जहा) अव्यय (संता) मृग का विशेषण (परिताणेण) वर्जन क्रिया का कर्ता (वज्जिआ) मृग का विशेषण (असंकियाई) कर्म (संकंति) क्रिया (संकिआई) कर्म (असंकिणो) मृग का विशेषण (परियाणिआणि) कर्म (संकंता) मृग का विशेषण (पासिताणि) कर्म (असंकिणो) मृग का विशेषण (अण्णाणभयसंविग्गा) मृग का विशेषण (तहिं तर्हि) अव्यय (संपलिंति) क्रिया । अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (परिताणेण) रक्षक से (वज्जिआ) वर्जित (जविणो) चञ्चल (मिगा) मृग (असंकियाई) शङ्का के अयोग्य स्थान में (संकंति) शङ्का करते हैं । (संकियाई) और शङ्का के योग्य स्थान में (असंकिणो) शङ्का नहीं करते हैं । (परियाणिआणि) रक्षायुक्त स्थान को (संकंतो) शंकास्पद जानते हुए और (पासिताणि) पाशयुक्त स्थान को (असंकिणो) शङ्का रहित समझते हुए (अण्णाणभयसंविग्गा) अज्ञान और भय से उद्विग्न वे मृग (तहिं तहिं) उन-उन पाशयुक्त स्थानों में ही (संपलिंति) जा पड़ते हैं । भावार्थ- जैसे रक्षक हीन, अति चञ्चल मृग, शङ्का के अयोग्य स्थान में शङ्का करते हैं और शङ्कायुक्त स्थान में शङ्का नहीं करते हैं । इस प्रकार रक्षायुक्त स्थान में शङ्का करनेवाले और पाशयुक्त स्थान में शङ्का नहीं करनेवाले, अज्ञान और भय से उद्विग्न वे मृग, पाश युक्त स्थान में ही जा पड़ते हैं। इसी तरह अन्यदर्शनी रक्षायुक्त स्याद्वाद को छोड़कर अनर्थयुक्त एकान्तवाद का आश्रय लेते हैं । ___टीका - यथा जविनो वेगवन्तः सन्तो मृगा आरण्याः पशवः परि-समन्तात् त्रायते रक्षतीति परित्राणं तेन वर्जिता रहिताः परित्राणविकला इत्यर्थः । यदि वा- परितानं वागुरादिबन्धनं तेन तर्जिता भयं ग्राहिताः सन्तो भयोद्भ्रान्तलोचनाः समाकुलीभूतान्तःकरणाः सम्यग्विवेकविकला अशङ्कनीयानि कूटपाशादिरहितानि स्थानान्यशङ्काहा॑णि तान्येव शङ्कन्तेऽनर्थोत्पादकत्वेन गृह्णन्ति । यानि पुनः शङ्कार्दाणि, शङ्का संजाता येषु योग्यत्वात्तानि शङ्कितानि शङ्कायोग्यानि वागुरादीनि तान्यशङ्किनस्तेषु शङ्कामकुर्वाणाः तत्र तत्र पाशादिके सम्पर्य्ययन्त इत्युत्तरेण सम्बन्धः ॥६॥ 1. तज्जिता ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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