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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके गाथा १२ परसमयवक्तव्यतायां तज्जीवतच्छरीवाद्यधिकारः तद्यथा कश्चिदीश्वरोऽपरो दरिद्रोऽन्यः सुभगोऽपरो दुर्भगः सुखी दुःखी, सुरूपो मन्दरूपो व्याधितो नीरोगीति, एवंप्रकारा च विचित्रता किं निबन्धनेति ? अत्रोच्यते, स्वभावात्, तथाहि - कुत्रचिच्छिलाशकले प्रतिमारूपं निष्पाद्यते, तच्च कुङ्कुमागरुचन्दनादिविलेपनानुभोगमनुभवति धूपाद्यामोदं च, अन्यस्मिंस्तु पाषाणखण्डे पादक्षालनादि क्रियते, न च तयोः पाषाणखण्डयोः शुभाशुभे स्तः यदुदयात्स तादृग्विधावस्थाविशेष इत्येवं स्वभावाज्जगद्वैचित्र्यं, तथा चोक्तम्“ कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हि । " इति तज्जीवतच्छरीरवादिमतं गतम् ॥१२॥ टीकार्थ जिससे जीव, उन्नति प्राप्त करता है, उसे 'पुण्य' कहते हैं, उस पुण्य से जो विपरीत है यानी जिससे जीव अवनति प्राप्त करता है, उसे 'पाप' कहते हैं । पुण्य और पाप ये दोनों ही नहीं हैं, क्योंकि इनका धर्मीरूप आत्मा ही नहीं है, और आत्मा के अभाव होने से इस लोक से भिन्न दूसरा लोक भी नहीं है जहाँ पुण्य, पाप का फल भोगा जाता है (यह तज्जीवतच्छरीरवादी कहते हैं ।) इस विषय में कारण बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं- 'सरीरस्स' अर्थात् शरीर के रूप में स्थित पाँच महाभूतों के नाश होने से अर्थात् उनके अलग-अलग हो जाने से आत्मा का भी नाश हो जाता है, अतः शरीर नष्ट होने पर उससे निकलकर आत्मा परलोक में जाकर पुण्य- पाप का फल अनुभव करता है, यह बात नहीं है । अतः धर्मीरूप आत्मा न होने के कारण उसके धर्मरूप पुण्य- पाप का भी अस्तित्व नहीं है । ( यह तज्जीवतच्छरीरवादी का मत है ।) इस विषय में बहुत से दृष्टान्त वे देते हैं। जैसे कि- जल का बुद्बुद् जैसे जल से भिन्न वस्तु नहीं है, उसी तरह पाँच भूतों से भिन्न कोई आत्मा नहीं है । तथा, जैसे केले के खम्भे के बाहरी छिलकों को उतारते जाने पर सब छिलके ही छिलके रह जाते हैं, उनसे भिन्न साररूप पदार्थ केले के अन्दर नहीं होता है, इसी तरह शरीर सम्बन्धी पाँचभूतों के अलग-अलग होने पर उनसे भिन्न कोई साररूप आत्मा नहीं पाया जाता । तथा, जिस तरह आग का गोला, घूमाने पर चक्रबुद्धि उत्पन्न करता है । इसी तरह भूतसमुदाय, बोलना, चलना आदि विशिष्ट क्रिया करता हुआ 'जीव' होने का भ्रम उत्पन्न करता है। तथा जिस तरह स्वप्न में घट-पट आदि बाहरी पदार्थों के बिना भी बाहरी पदार्थों के रूप में उनका ज्ञान अनुभव किया जाता है, इसी तरह आत्मा के बिना भी भूतसमुदाय में आत्मा का ज्ञान उत्पन्न होता है । तथा जिस प्रकार अति निर्मल होने के कारण दर्पण में प्रतिबिम्ब रूप से दिखता हुआ बाहर का पदार्थ भी दर्पण के अन्दर रहा हुआ सा प्रतीत होता है, परन्तु वह दर्पण के अन्दर नहीं है, तथा जिस तरह ग्रीष्म ऋतु में पृथिवी की गर्मी से हिलती हुई सूर्य्य की किरणें जल रूप विज्ञान उत्पन्न करती हैं, एवं दूसरे गन्धर्व नगर आदि, जैसे उस आकार का न होकर भी वैसे प्रतीत होते हैं, इसी तरह भूतसमुदाय के शरीर रूप में परिणत होने पर उनसे भिन्न न होता हुआ भी आत्मा उनसे भिन्न होने का भ्रम उत्पन्न करता है । कोई टीकाकार, इन दृष्टान्तों को बतानेवाले कतिपय सूत्रों की व्याख्या करते हैं, परंतु हमने सूत्रादर्शों में और पुरानी टीकाओं में उन सूत्रों को नहीं देखा है, इसलिए उन्हें नहीं लिखा है । (शङ्का) यदि पाँच भूतों से भिन्न कोई आत्मा नाम का अलग पदार्थ नहीं है और उसके किये हुए पुण्य, पाप भी नहीं हैं तो यह विचित्र जगत् किस तरह हो सकता है ? । इस जगत् में कोई धनवान्, कोई दरिद्र, कोई सुन्दर, कोई कुरूप, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई सुरूप, कोई मन्दरूप, कोई रोगी, कोई नीरोगी, इस प्रकार जगत् की विचित्रता क्यों होती है ? (समाधान) कहते हैं कि यह सब स्वभाव से होता है । जैसे कि- किसी पत्थर के टुकड़े की देवमूर्ति बनायी जाती है और वह मूर्ति, कुंकुम, अगर, चन्दन आदि विलेपनों को भोगती है और धूप आदि के सुगन्ध का भी अनुभव करती है, तथा दूसरे पत्थर के टुकड़े पर पैर धोना आदि कार्य्य किये जाते हैं, परंतु इसमें उन पत्थरों के टुकड़ों का कोई पुण्य पाप नहीं है, जिसके उदय से उनकी वैसी अवस्थायें होती हैं, अतः सिद्ध होता है कि स्वभाव से ही जगत् की विचित्रता होती है । कहा भी है कण्टक की तीक्ष्णता, मोर की विचित्रता और मुर्गे का रंग, यह सब स्वभाव से ही होते हैं । यह तज्जीवतच्छरीरवादि का मत कहा गया ॥ १२ ॥ २३
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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