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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना तीन सौ त्रेसठ प्रकार के पाखण्डी, अपने अपने मतों का साधन करते हुए उपस्थित होते हैं, उन पाखण्डियों के द्वारा अपने पक्ष का समर्थन के लिए दिये हुए साधनों में दोष दिखाकर उनका निराकरण किया गया है । तेरहवें अध्ययन में, कपिल, कणाद, अक्षपाद, बुद्ध और जैमिनि आदि सब मतवादियों को कुमार्ग का प्रवर्तक सिद्ध किया है । ग्रंथ नामक चौदहवें अध्ययन में, शिष्यसम्बन्धी गुण और दोषों को बताकर कहा है कि शिष्यसम्बन्धी गुणों से सम्पन्न पुरुष को सदा गुरुकुल में निवास करना चाहिए । आदानीय नामक पन्द्रहवें अध्ययन का अर्थाधिकार यह है- जो शब्द अथवा अर्थ, ग्रहण किये जाते है, उनको 'आदानीय' कहते हैं । वे आदानीय पद अथवा अर्थ पूर्ववर्णित पदों और अर्थों के साथ प्रायः इस अध्ययन में मिलाये गये हैं तथा मोक्षमार्ग के साधक आयतचारित्र यानी सम्यक्चारित्र को यहाँ बताया है। गाथा नामक सोलहवें अध्ययन में पाठ बहुत कम है, उसमें यह अर्थ वर्णित हुआ है, जैसे कि- पन्द्रह अध्ययनों के द्वारा जो अर्थ कहा गया है, वह यहाँ संक्षेप से वर्णन किया गया है ॥२८॥ गाथा नामक सोलह अध्ययनों का समुदायार्थ, संक्षेप से कहा गया, अब यहाँ से एक एक अध्ययनों का वर्णन करूँगा। प्रथम अध्ययन का नाम समयाध्ययन है । इसके उपक्रम आदि चार अनयोगद्वार होते हैं। जिसके द्वारा शास्त्र, निक्षेप के अवसर को प्राप्त होता है, उसे 'उपक्रम' कहते हैं । वह निक्षेप लौकिक और शास्त्रीय भेद से दो प्रकार का होता है। उसमें लौकिक निक्षेप, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से छः प्रकार का होता है। इसका विस्तृत विवेचन आवश्यक आदि सूत्रों में ही कर दिया गया है । शास्त्रीय निक्षेप भी आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार भेद से छः प्रकार का ही है । आनुपूर्वी से लेकर समवतार पर्य्यन्त निक्षेपों को अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार जानना चाहिए । यह अध्ययन, आनुपूर्वी आदि निक्षेपों में जहाँजहाँ उतर सके, वहाँ- वहाँ उतारना चाहिए । आनुपूर्वी दश प्रकार की होती है, उसमें यह अध्ययन गणनानुपूर्वी में उतरता है । गणनानुपूर्वी तीन प्रकार की होती है । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी । इनमें यह अध्ययन पूर्वानुपूर्वी के हिसाब से सोलहवाँ है । अनानुपूर्वी का विचार करने पर यहाँ एक से लेकर सोलह तक अंकों की सोलह श्रेणी होगी। उस सोलह श्रेणी में अंकों को परस्पर गुणन करने पर जो फल होगा उसमें एक संख्या पूर्वानुपूर्वी की और एक पश्चानुपूर्वी की होगी, शेष संख्याएँ अनानुपूर्वी की होंगी । अनानुपूर्वी में संख्या भेद जानने का उपाय यह है (एकाद्याः)- अर्थात् जितनी संख्या का गच्छ हो, उसमें प्रथम संख्या से लेकर अन्तिम संख्या तक के अंको को परस्पर गुणन करने पर जो अंक राशि फल आवे, वही विकल्प गणित का फल है । प्रस्तार लाने का उपाय यह है । (पुव्वाणुपुव्वि) बड़ी संख्या के अनुसार छोटी संख्याओं को पूर्वक्रम से समता भेद से रखना चाहिए । और ऊपर के समान उसके सामने भी रखना चाहिए, शेष में पहिला ही क्रम है । (गणिते) परस्पर गुणन की हुई संख्याओं का जो फल आवे, उसमें अन्तिम संख्या से भाग लेने पर जो लब्धि आती है, उसमें शेष संख्याओं से भाग लेना चाहिए और उसे आदि तथा अन्त में क्रमशः रखना चाहिए, यह विकल्प गणित की रीति है । इस श्लोक की शिष्य हित के लिए व्याख्या की जाती है । शिष्य को सुखपूर्वक ज्ञान होने के लिए छः संख्याओं को लेकर पहले इस श्लोक के अर्थ की योजना की जाती है। पहले १, २, ३, ४, ५, ६ ये छः अंक स्थापित करने चाहिए । इन संख्याओं को परस्पर गुणन करने पर ७२० गणित फल होता है । इस गणित में अन्तिम संख्या ६ है । ७२० में ६ का भाग लेने पर १२० लब्धि आती है । उस १२० को छः पंक्तिओं के अन्तिम पंक्ति में षट्कों का स्थापन करना चाहिए । उसके नीचे पञ्चकों का भी १२० ही स्थापना करना चाहिए । इसी तरह नीचे नीचे क, द्विक और एक, इन प्रत्येक के नीचे १२० स्थापन करना चाहिए । इस प्रकार अन्तिम पंक्ति में ७२० संख्या होती है । इसे गणित प्रक्रिया का आदि कहते हैं । ७२० में ६ का भाग देने पर जो १२० लब्धि आयी है, उसमें शेष पाँच का भाग लगाने पर २४ लब्धि आती है । इसलिए उतना ही पंचक, चतुष्क, त्रिक, द्विक और एक, पञ्चम पंक्ति में प्रत्येक स्थापन करने चाहिए, जब तक १२० संख्या हो । उसके नीचे, पहले रखे हुए अंक को छोड़कर जो दूसरे अंक है, उनमें जो-जो महान् संख्यावाला है, उस महान् संख्यावालों को नीचे २४ संख्या
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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