SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ७-८ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् रजोहरण लाकर दो, मैं अपने केशों का लोच करने में असमर्थ हैं, इसलिए मेरा शिर मुण्डन करने के लिए हे साधो! नाई को आज्ञा दो ताकि मैं अपने बड़े केशों को कटा डालूं ॥६॥ अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कययं मे पयच्छाहि । लोद्धं च लोद्धकुसुमं च, वेणुपलासियं च गुलियं च ॥७॥ छाया -अथानिकामलढारं, खंखुणकं मे प्रयच्छ । लोधं च लोध्रकुसुमं च वेणुपलाशिकां च गुलिकां च ॥ ___ अन्वयार्थ - (अदु अंजणि अलंकारं कुक्कययं मे पयच्छाहि) हे साधो ! मुझको अञ्जन का पात्र, भूषण तथा घूघूरूदार वीणा लाकर दो (लोद्धं च लोद्धकुसुमं च) लोध्र का फल और लोध्र का फूल भी ला दो (वेणुपलासियं च गुलियं च) एवं एक बाँस की लकडी और पौष्टिक औषध की गोली भी लाओ। भावार्थ- स्त्री में अनुरक्त साधु से स्त्री कहती है कि हे साधो । मुझको अञ्जन का पात्र, भूषण तथा घुघूतदार वीणा लाकर दो तथा लोध्र का फल और फूल लाओ एवं एक बाँस की लकड़ी और पौष्टिक औषध की गोली भी लाओ। टीका - अथशब्दोऽधिकारान्तरप्रदर्शनार्थः पूर्व लिङ्गस्थोपकरणान्यधिकृत्याभिहितम्, अधुना गृहस्थोपकरणान्यधिकृत्याभिधीयते, तद्यथा- 'अंजणिमिति अञ्जणिकां कज्जलाधारभूतां नलिकां मम प्रयच्छस्वेत्युत्तरत्र क्रिया, तथा कटककेयूरादिकमलङ्कारं वा, तथा 'कुक्कयय'ति खुंखुणकं 'मे' मम प्रयच्छ, येनाहं सर्वालङ्कारविभूषिता वीणाविनोदेन भवन्तं विनोदयामि, तथा लोधं च लोध्रकुसुमं च, तथा 'वेणुपलासियंति वंशात्मिका श्लक्ष्णत्वक् काष्ठिका, सा दन्तैर्वामहस्तेन प्रगृह्य दक्षिणहस्तेन वीणावद्वाद्यते, तथौषधगुटिकां तथाभूतामानय येनाहमविनष्टयौवना भवामीति।।७।। ___टीकार्थ - अथ शब्द दूसरा अधिकार बताने के लिए आया है । पहले साधु के लिङ्ग वेष में रहनेवाले परुष के उपकरणों के विषय में कहा है अब गहस्थों के उपकरण के विषय में कहते हैं। स्त्री कहती है किहे प्रिय! मुझको कज्जल रखने के लिए एक नली (पात्र) लाकर दो (यहां प्रयच्छस्व) यह क्रियापद आगे के चरण में है। तथा कटक और केयूर आदि अलङ्कार मुझको लाकर दो । हे प्रिय ! मुझको एक घूघूरुदार वीणा लाकर दो, जिससे मैं सभी अलङ्कारों से भूषित होकर वीणा के विनोद से आपको प्रसन्न करूंगी । तथा मुझको लोध्र और लोध्र का फूल लाकर दो, एवं चिक्कनी छाल वाली बाँस की एक बंशी लाकर दो, जो दाँतों से वाम हाथ के द्वारा पकड़कर दक्षिण हस्त से वीणा के समान बजाई जाती है, तथा मुझको पौष्ठिक औषध की ऐसी गोली लाकर दो कि मैं सदा युवती बनी रहुं ॥७॥ कुटुं तगरं च अगलं, संपिटुं सम्मं उसिरेणं । तेल्लं मुहभिजाए, वेणुफलाई सन्निधानाए ॥८॥ छाया - कुष्टं तगरं चागुरुं, सम्पिष्टं सममुशीरेण । तेलं मुखाध्याय, वेणुफलानि सनिथानाय ॥ अन्वयार्थ - (कुटुं तगरं अगरु) हे प्रिय ! कुष्ट, तगर और अगर (उसीरेण सम्मं संपिट्ठ) उशीर (खस) के साथ पीसे हुए मुझको लाकर दो (मुहभिजाए तेल्लं) तथा मुख में लगाने के लिए तेल और (संनिधानाए वेणुफलाई) वस्त्रादि रखने के लिए बाँस की बनी हुई एक पेटी लाओ। भावार्थ - स्त्री कहती है कि हे प्रिय ! उशीर के जल में पीसा हुआ कुष्ट, तगर और अगर लाकर मुझको दो, तथा मुख में लगाने के लिए तेल और कपड़ा वगैरह रखने के लिए बाँस की बनी हुई एक पेटी लाओ। टीका - तथा कुष्ठम् उत्पलकुष्ठं तथाऽगरं तगरं च, एते द्वे अपि गन्धिकद्रव्ये, एतत्कुष्ठादिकम् 'उशीरेण' वीरणीमूलेन सम्पिष्टं सुगन्धि भवति यतस्तत्तथा कुरु, तथा 'तैलं लोध्रकुङ्कुमादिना संस्कृतं मुखमाश्रित्य "भिजाए'त्ति अभ्यङ्गाय ढौकयस्व, एतदुक्तं भवति- मुखाभ्यङ्गार्थ तथाविधं संस्कृतं तैलमुपाहरेति, येन कान्त्युपेतं मे मुखं जायते, 1. घर्घरमिति वि. प० । 2. कुक्कुइयं प्र० । 3. भिंडलिंजाए० प्र० । २८१
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy