________________
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा १४
करे ।
भावार्थ - अपनी कन्या हो, चाहे अपने पुत्र की वधू हो अथवा दूध पिलानेवाली धाई हो अथवा दासी हो, बड़ी स्त्री हो या छोटी कन्या हो, उनके साथ साधु को परिचय नहीं करना चाहिए ।
टीका अपिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, 'धूयराहि 'त्ति दुहितृभिरपि सार्धं न विहरेत तथा 'स्नुषाः ' सुतभार्यास्ताभिरपि सार्धं न विविक्तासनादौ स्थातव्यं, तथा 'धात्र्यः' पञ्चप्रकाराः स्तन्यदादयो जननीकल्पास्ताभिश्च साकं न स्थेयं, अथवाऽऽसतां तावदपरा योषितो या अप्येता 'दास्यो' घटयोषितः सर्वापसदास्ताभिरपि सह सम्पर्क परिहरेत्, तथा महतीभिः कुमारीभिर्वाशब्दाल्लघ्वीभिश्च सार्धं 'संस्तवं' परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं सोऽनगारो न कुर्यादिति, यद्यपि तस्यां दुहितरि स्नुषादौ वा न चित्तान्यथात्वमुत्पद्यते तथापि च तत्र विविक्तासनादावपरस्य शङ्कोत्पद्यते, अतस्तच्छङ्कानिरासार्थं स्त्रीसम्पर्कः परिहर्तव्य इति ॥ १३ ॥
टीकार्थ अपि शब्द का प्रत्येक पदों के साथ सम्बन्ध है । साधु अपनी कन्या के साथ भी कहीं न जावे । स्नुषा पुत्र की स्त्री का नाम है, उनके साथ भी एकान्त स्थान आदि में न बैठे । तथा धाई पांच प्रकार की होती हैं, जिन्होंने बाल्यकाल में दूध पिलाया है तथा सेवा आदि की है, वे माता के तुल्य होती हैं, उनके साथ भी साधु एकान्त स्थान में न रहे। दूसरी स्त्रियों को तो जाने दीजिए, सबसे नीच जो पानी भरनेवाली स्त्रियां हैं, उनके साथ भी साधु सम्पर्क न रखे। बड़ी स्त्री हो चाहे कुमारी हो अथवा वा शब्द से कोई छोटी कन्या हो उनके साथ भी साधु अपना सम्पर्करूप परिचय न करे । यद्यपि अपनी कन्या अथवा अपने पुत्रवधू के साथ एकान्त स्थान में रहने से साधु का चित्त विकृत नहीं हो सकता है। [ वर्तमान में तो पुत्रवधु आदि को देखकर भी विकार उत्पन्न होने की संभावना है ।] तथापि दूसरे लोगों को स्त्री के साथ साधु को एकान्त स्थान में रहते देखकर शङ्का उत्पन्न हो सकती है, अतः उस शङ्का की निवृत्ति के लिए स्त्रीसम्पर्क छोड़ देना चाहिए ||१३||
स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम्
-
अपरस्य शङ्का यथोत्पद्यते तथा दर्शयितुमाह
स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठनेवाले साधु को देखकर दूसरे लोगों को जिस प्रकार शङ्का उत्पन्न होती है, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
-
अदु णाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं दट्टु एगता होति । गिद्धा सत्ता कामेहिं, रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि
।।१४।।
छाया - अथ ज्ञातीनां सुहृदां वा दृष्ट्वा एकदा भवति । गृद्धाः सत्त्वाः कामेषु रक्षणपोषणे मनुष्योऽसि ॥
अन्वयार्थ - ( एगता) किसी समय ( द ) एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठे हुए साधु को देखकर ( णाइणं सुहीणं च ) उस स्त्री के ज्ञाति को तथा उसके सुहृदों को (अप्पियं होति ) दुःख उत्पन्न होता है, वे कहते हैं कि ( सत्ता कामेहिं गिद्धा ) जैसे दूसरे प्राणी काम में आसक्त हैं, इसी तरह यह साधु भी है ( रक्खण पोसणे मणुस्सो सि) तथा वे कहते हैं कि तुम इस स्त्री का भरण पोषण भी करो क्योंकि तूं इसका मनुष्य (पति) है ।
-
भावार्थ - किसी स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञाति और सुहृदों को कभी कभी चित्त में दुःख उत्पन्न होता है और वे समझते हैं कि जैसे दूसरे पुरुष काम में आसक्त रहते हैं, इसी तरह यह साधु भी कामासक्त है । फिर वे क्रोधित होकर कहते हैं कि तुम इसका भरण पोषण क्यों नहीं करते ? क्योंकि तूं इसका मनुष्य पति है।
टीका 'अदु णाइणम्' इत्यादि, विविक्तयोषिता सार्धमनगारमथैकदा दृष्ट्वा योषिज्जातीनां सुहृदां वा 'अप्रियं चित्तदुःखासिका भवति, एवं च ते समाशङ्केरन्, यथा - सत्त्वाः प्राणिन इच्छामदनकामैः 'गृद्धा' अध्युपपन्नाः तथाहिएवम्भूतोऽप्ययं श्रमणः स्त्रीवदनावलोकनासक्तचेताः परित्यक्तनिजव्यापारोऽनया सार्धं निर्हीकस्तिष्ठति, तदुक्तम्
-
२६१