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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ८ णा पिय कंत सामिय दइय 2जियाओ तुमं मह पिओति । जीए जीयामि अहं पहवसि तं मे सरीरस्स ||१|| इत्यादिभिरनेकैः प्रपञ्चैः करुणालापविनयपूर्वकं 'उवगसित्ताणं' ति उपसंश्लिष्य समीपमागत्य 'अथ' तदनन्तर 'मञ्जुलानि' पेशलानि विश्रम्भजनकानि कामोत्कोचकानि वा भाषन्ते, तदुक्तम् 4मित महुररिभियजंपुल्लएहि ईसीकडक्खहसिएहिं । सविगारेहि वरागं हिययं पिहियं मयच्छीए ||१|| तथा 'भिन्नकथाभी' रहस्यालापैर्मैथुनसम्बद्धैर्वचोभिः साधोश्चित्तमादाय तमकार्यकरणं प्रति 'आज्ञापयन्ति' प्रवर्तयन्ति, स्ववशं वा ज्ञात्वा कर्मकरवदाज्ञां कारयन्तीति ||७|| - स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् - टीकार्थ - जिन बातों से मन बंध जाता है, उन्हें मनोबन्धन कहते हैं । मनोहर वचन बोलना, स्नेहभरी दृष्टि से देखना तथा अपने अंग प्रत्यंगो को दीखलाना इत्यादि मन को बांधनेवाले हैं। जैसे कि कहा है हे नाथ! हे प्रिय ! हे कान्त! हे स्वामिन्! हे दयित! तुम मेरे जीवन से भी अधिक प्रिय हो, मैं तुम्हारे जीने से जीती हूं, आप मेरे शरीर के मालिक हैं । --- इत्यादि अनेक प्रपञ्चों से तथा करुणालाप और विनयपूर्वक समीप में आकर स्त्रियां विश्वासजनक अथवा कामजनक मधुर भाषण करती हैं। जैसा कि कहा है। - सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेगचरं पासेणं । एवित्थियाउ बंधंति, संवुडं एगतियमणगारं (मितमहुर) इत्यादि अर्थात् मृगनयनी स्त्री का हृदय, परिमित मधुर भाषण से भीगे हुए कटाक्ष और मन्द हास्यरूप विकारों से ढंका हुआ होता है । स्त्रियां रहस्य आलाप अर्थात् मैथुन सम्बन्धी वार्तालापों से साधु के चित्त को हरकर अपने साथ कुकर्म करने की आज्ञा देती हैं, अथवा साधु को अपने वश में जानकर नोकर की तरह उन पर आज्ञा चलाती हैं ||७|| -- ॥ ८ ॥ छाया सिंहं यथा मांसेन निर्भयमेकचरं पाशेन । एवं स्त्रियो बध्नन्ति संवृतमेकतियमनगारम् ॥ अन्वयार्थ - (जहा) जैसे (निब्मयं) निर्भय ( एगचरं) अकेले विचरने वाले (सीहं) सिंह को (कुणिमेणं) मांस देकर (पासेणं) पाश के द्वारा (बंधंति) सिंह पकडनेवाले बांध लेते हैं ( एवं ) इसी तरह ( इत्थियाउ) स्त्रियां (संवुडं) मन, वचन और काय से गुप्त रहनेवाले ( एगतियं अनगारं) किसी साधु को (बंधंति) अपने पाश में बांध लेती हैं । भावार्थ - जैसे सिंह को पकड़नेवाले शिकारी मांस का लोभ देकर अकेले निर्भय विचरनेवाले सिंह को पाश में बांध लेते हैं, इसी तरह स्त्रियां मन, वचन और काय से गुप्त रहनेवाले साधु को भी अपने पाश में बांध लेती हैं । टीका - 'सीहं जहे' त्यादि, यथेति दृष्टान्तोपदर्शनार्थे यथा बन्धनविधिज्ञाः सिंहं पिशितादिनाऽऽमिषेणोपप्रलोभ्य ‘निर्भयं' गतभीकं निर्भयत्वादेव एकचरं 'पाशेन' गलयन्त्रादिना बध्नन्ति बद्ध्वा च बहुप्रकारं कदर्थयन्ति, एवं स्त्रियो नानाविधैरुपायैः पेशलभाषणादिभिः 'एगतियन्ति' कञ्चन तथाविधम् 'अनगारं' साधुं 'संवृतमपि' मनोवाक्कायगुप्तमपि 'बध्नन्ति' स्ववशं कुर्वन्तीति, संवृतग्रहणं च स्त्रीणां सामर्थ्योपदशनार्थं, तथ संवृतोऽपि ताभिर्बध्यते, किं पुनरपरोऽसंवृत इति ॥८॥ किञ्च टीकार्थ यहां अथ शब्द दृष्टान्त बताने के लिए आया है। जैसे सिंह को बांधने का उपाय जाननेवाले 1. नाथ कान्त प्रिय स्वामिन्दयित! जीवितादपि त्वं मम प्रिय इति जीवति जीवामि अहं प्रभुरसि त्वं मे शरीरस्य || १|| 2. इयय आउ तं प्र० । 3. तुमं प्र० । 4. मितमधुररिभितजल्पाद्वैरीषत्कटाक्षहसितैः । सविकारैर्वराकं हृदयं पिहितं मृगाक्ष्याः ||१|| २५६
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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