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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ६ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् भावार्थ - साधु स्त्रियों पर अपनी दृष्टि न लगावे तथा उनके साथ कुकर्म करने का साहस न करे एवं उनके साथ ग्राम आदिक में विहार न करे, इस प्रकार साधु की आत्मा सुरक्षित होती है । टीका 'नो' नैव 'तासु' शयनासनोपनिमन्त्रणपाशावपाशिकासु स्त्रीषु 'चक्षुः ' नेत्रं 'सन्दध्यात् ' सन्धयेद्वा न तद्दृष्टौ स्वदृष्टिं निवेशयेत्, सति च प्रयोजने ईषदवज्ञया निरीक्षेत, तथा चोक्तम् - - कार्येऽपीषन्मतिमान्निरीक्षते योषिदङ्गमस्थिरया । अस्निग्धया दृशाऽवज्ञया हाकुपितोऽपि कुपित इव ||१|| तथा नापि च साहसम् अकार्यकरणं तत्प्रार्थनया 'समनुजानीयात्' प्रतिपद्येत, तथा ह्यतिसाहसमेतत्सङ्ग्रामावतरणवद्यन्नरकपातादिविपाकवेदिनोऽपि साधोर्योषिदासञ्जनमिति, तथा नैव स्त्रीभिः सार्धं ग्रामादौ 'विहरेत्' गच्छेत्, अपिशब्दात् न ताभिः सार्धं विविक्तासनो भवेत्, ततो महापापस्थानमेतत् यतीनां यत् स्त्रीभिः सह साङ्गत्यमिति, तथा चोक्तम् - मात्रा स्वत्रा दुहित्रा वा, न विविकासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ||१|| सर्वापायानां स्त्रीसम्बन्धः कारणम्, टीकार्थ स्त्रियां साधु को फँसाने के लिए शयन और आसन आदि को ग्रहण करने की साधु से प्रार्थना करती हैं, यही प्रार्थना साधुओं को फँसाने का जाल है । अतः ऐसी स्त्रियों पर साधु अपनी दृष्टि न दे, उनकी दृष्टि से अपनी दृष्टि न मिलावे । प्रयोजनवश यदि उन पर दृष्टि देना पड़े तो अवज्ञा के साथ थोड़ी दृष्टि देवे। कहा है कि एवमनेन स्त्रीसङ्गवर्जनेनात्मा समस्तापायस्थानेभ्यो रक्षितो भवति, यतः अतः स्वहितार्थी तत्सङ्गं दूरतः परिहरेदिति ॥५॥ - बुद्धिमान् पुरुष स्त्री से काम पड़ने पर उसके अंग पर स्नेह रहित अस्थिर दृष्टि देवे मानो क्रोध न होने पर भी वह क्रोधित सा प्रतीत हो । तथा स्त्री की प्रार्थना से साधु उसके साथ कुकृत्य करना स्वीकार न करे। कारण यह है कि सङ्ग्राम में उतरने के समान नरकरूपी विपाक को जाननेवाले साधु का स्त्री के साथ संसर्ग करना अति साहस का कार्य है। तथा साधु स्त्रियों के साथ ग्रामादिक में विहार न करे । अपि शब्द से उनके साथ एकान्त में न बैठे । स्त्रियों के साथ संगति करना साधु के लिए महान् पाप का स्थान है । कहा है कि २५४ माता, बहिन और अपनी लड़की के साथ भी एकान्त स्थान में नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इन्द्रियों का समूह बड़ा ही बलवान् है, उनके वश में होकर पण्डित भी अकार्य कर बैठते हैं । इस प्रकार स्त्री के सम्बन्ध को वर्जित करने से आत्मा समस्त कष्टों से बच जाता है क्योंकि समस्त कष्टों का कारण स्त्रीसम्बन्ध ही है, अतः अपना हित चाहनेवाला पुरुष दूर से ही स्त्रीसम्बन्ध का त्याग करे ||५|| कथं चैताः पाशा इव पाशिका इत्याह स्त्रियां पुरुष को पाश के समान किस प्रकार फँसाने वाली है? सो शास्त्रकार बतलाते हैं आमंतिय उस्सविया भिक्खुं आयसा निमंतंति । एताणि चेव से जाणे, सद्दाणि विरूवरूवाणि www ॥६॥ छाया - आमन्त्र्यं संस्थाप्य भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ति । एतांश्चैव स जानीयात्, शब्दान् विरूपरूपान् ॥ अन्वयार्थ - ( आमंतिय) स्त्रियां साधु को संकेत देकर यानी मैं आपके पास अमुक समय आउंगी इत्यादि आमन्त्रण करके (उस्सविया)
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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