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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ३-४ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् प्रकार माया प्रधान स्त्रियां प्रतिभायुक्त होने के कारण प्रतारण करने के उपयों को भी जानती हैं, जिससे विवेकी साधु भी उस प्रकार के कर्म के उदय के कारण उनमें आसक्त हो जाते हैं ॥२॥ तानेव सूक्षमप्रतारणोपायान् दर्शयितुमाह - साधु को ठगने के लिए स्त्रियां जो सूक्ष्म उपाय करती हैं, उन उपायों को बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं । पासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिंति । कायं अहेवि दंसंति, बाहू उद्धट्टु कक्खमणुव्वजे ॥३॥ छाया - पार्श्वे भृशं निषीदन्ति, अभीक्ष्णं पोषवस्त्रं परिदधति । कायमथोऽपि दर्शयति बाहुमुद्धृत्य कक्षामनुव्रजेत् ॥ अन्वयार्थ - ( पासे) साधु के निकट (भिसं) अत्यन्त ( णिसीयंति) बैठती है । (अभिक्खणं) निरन्तर ( पोसवत्थं) काम को उत्पन्न करनेवाले सुंदर वस्त्र (परिहिंति) पहिनती है । ( अहेवि कार्य ) शरीर नीचले भाग को भी (दंसंति) दीखलाती हैं। ( बाहू उद्धट्टु) तथा भुजा को ऊठाकर (कक्खमणुव्वजे) कांख दीखलाती हुई साधु के सामने जाती हैं । भावार्थ - स्त्रियां साधु को ठगने के लिए उनके निकट बहुत ज्यादा बैठती हैं और निरन्तर सुंदर वस्त्र को ढीला होने का बहाना बनाकर पहनती हैं। तथा शरीर के नीचले भाग को भी काम उद्दीपित करने के लिए साधु को दीखलाती हैं एवं भुजा उठाकर कांख दीखलाती हुई साधु के सामने आती हैं । टीका 'पार्श्वे' समीपे 'भृशम्' अत्यर्थमूरूपपीडमतिस्नेहमाविष्कुर्वन्त्यो 'निषीदन्ति' विश्रम्भमापादयितुमुपविशन्तीति, तथा कामं पुष्णातीति पोषं - कामोत्कोचकारि शोभनमित्यर्थः तच्च तद्वस्त्रं पोषवस्त्रं तद् ‘अभीक्ष्णं' अनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन परिदधति, स्वाभिलाषमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थं परिधानं शिथिलीकृत्य पुनर्निबन्धन्तीति, तथा 'अध:कायम्' ऊर्वादिकमनङ्गोद्दीपनाय 'दर्शयन्ति' प्रकटयन्ति, तथा 'बाहुमुद्धृत्य' कक्षामादर्श्य 'अनुकूलं' साध्वभिमुखं 'व्रजेत्' गच्छेत् । सम्भावनायां लिङ्, सम्भाव्यते एतदङ्गप्रत्यङ्गसन्दर्शकत्वं स्त्रीणामिति ||३|| अपि च - - टीकार्थ - स्त्रियां अपना अत्यन्त स्नेह प्रकट करती हुई साधु के अत्यन्त पास बैठती हैं, वे विश्वास उत्पन्न कराने के लिए साधु के निकट बैठती हैं । जो वस्त्र काम की उत्पत्ति करता उसे पोषवस्त्र कहते हैं, उस कामवर्धक सुंदर वस्त्र को स्त्रियां ढीला होने का बहाना बनाकर बार- बार पहिनती हैं, आशय यह है कि अपना अभिलाष प्रकट करती हुई साधु को ठगने के लिए वस्त्र को ढीला करके वे बार-बार बांधती हैं। तथा साधु का काम जगाने के लिए जंघा आदि अंगो को भी दीखलाती हैं । तथा भुजा उठाकर कांख दीखलाती हुई साधु के सामने जाती हैं। यहां सम्भावना अर्थ में लिङ् है, अतः स्त्रियां साधु को अपना अंग प्रत्यंग दीखावे यह संभव है ||३|| सयणासणेहिं जोगेहिं इत्थिओ एगता णिमंतंति । याणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि 11811 छाया - शयनासनेन योग्येन स्त्रिय एकदा निमन्त्रयन्ति । एतानि चैव स जानीयात् पाशान् विरूपरूपान् ॥ अन्वयार्थ - (एगता) किसी समय (इत्थिओ) स्त्रियां (जोगेर्हि) उपभोग करने योग्य ( सयणासणेहिं) पलंग और आसन आदि का उपभोग करने के लिए (णिमंतंति) साधु को आमन्त्रित करती हैं (से) वह साधु (एयाणि) इन्ही बातों को (विरूवरूवाणि) नाना प्रकार का ( पासाणि) पाशबन्धन ( जाणे) जाने । भावार्थ - कभी एकान्त स्थान में स्त्रियां साधु को पलंग पर तथा उत्तम आसनपर बैठने के लिए स्वीकार कराती
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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