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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथ १ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् की हुई साध्वियों को भी पुरुष के साथ परिचय आदि को त्याग में प्रमाद रहित होना ही कल्याणकारी है। इस अध्ययन में स्त्री के संसर्ग से पुरुष में होने वाले दोषों के समान ही पुरुष के संसर्ग से स्त्री में होनेवाले दोष भी बताये गये हैं तथापि इसका नाम 'पुरुषपरिज्ञा' न रखकर 'स्त्रीपरिज्ञा' रखने का कारण यह है कि स्त्री की अपेक्षा परुष में धर्म की विशेषता होती है। अन्यथा पुरुषपरिज्ञा भी इस अध्ययन को कहते ॥६॥ - साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् - - अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुणों से युक्त सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह है - जे मायरं च पियरं च, विप्पजहाय पुव्वसंजोगं । एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणो विवित्तेसु ॥१॥ छाया - यो मातरं च पितरं च विप्रहाय पूर्वसंयोगम् । एकः सहितश्चरिष्यामि आरतमैथुनो विविक्तेषु ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो पुरुष इस विचार से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं (मायरं पियर) मातापिता (पुव्वसंजोगं) तथा पूर्व सम्बन्ध को (विष्पजहाय) छोडकर (आरतमेहुणो) एवं मैथुन रहित होकर (एगे सहिते) अकेला, ज्ञानदर्शन और चारित्र से युक्त रहता हुआ (विवित्तेसु) स्त्री, पशु और नपुंसक रहित स्थानों में (चरिस्सामि) विचरूंगा। भावार्थ - जो पुरुष इस अभिप्राय से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं माता, पिता तथा पूर्व सम्बन्धों को छोड़कर तथा मैथुन वर्जित रहकर ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पालन करता हुआ अकेला पवित्र स्थानों में विचरुंगा, उसको स्रियां कपट से अपने वश में करने का प्रयत्न करती हैं। टीका - अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः, तद्यथा - अनन्तरसूत्रेऽभिहितम्, आमोक्षाय परिव्रजेदिति, एतच्चाशेषाभिष्वङ्गवर्जितस्यं भवतीत्यतोऽनेन तदभिष्वङ्गवर्जनमभिधीयते, 'यः' कश्चिदुत्तमसत्त्वो 'मातरं पितरं' जननी जनयितारम्, एतद्ग्रहणादन्यदपि भ्रातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वशुरादिकं पश्चात्संयोगं च 'विप्रहाय' त्यक्त्वा, चकारो समुच्चयार्थो, ‘एको' मातापित्राद्यभिष्वङ्गवर्जितः कषायरहितो वा तथा सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रैः स्वस्मै वा हितः स्वहितः- परमार्थानुष्ठानविधायी 'चरिष्यामि' संयमं करिष्यामीत्येवं कृतप्रतिज्ञः, तामेव प्रतिज्ञां सर्वप्रधानभूतां लेशतो दर्शयति – 'आरतम्' उपरतं मैथुनं - कामाभिलाषो यस्यासावारतमैथुनः, तदेवम्भूतो 'विविक्तेषु' स्त्रीपशुपण्डकवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय विहरतीति, क्वचित्पाठो 'विवित्तेसित्ति' विविक्तं - स्त्रीपशुपण्डकादिरहितं स्थानं संयमानुपरोध्येषितुं शीलमस्य तथेति ॥१॥ टीकार्थ - पूर्व सूत्र के साथ इस अध्ययन का सम्बन्ध यह है - पूर्व सूत्र में कहा है कि साधु मोक्ष पाने तक दीक्षा का पालन करे । परन्तु वह मोक्ष समस्त अभिष्वङ्ग अर्थात् मोह को छोड़े हुए पुरुष को प्राप्त होता है इसलिए इस अध्ययन में अभिष्वङ्ग (मोह) को वर्जित करने का उपदेश किया जाता है । जो कोई उत्तम साधु माता, पिता को तथा भाई, पुत्र आदि पूर्व सम्बन्धियों को एवं सास, ससूर आदि पीछे के सम्बन्धियों को छोड़कर माता, पिता आदि के सम्बन्ध से रहित अकेला अथवा कषाय रहित एवं ज्ञान, दर्शन और चारित्रसम्पन्न अथवा अपने हित का यानी परमार्थ का अनुष्ठान करनेवाले होकर "मैं संयम का पालन करूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा किया हुआ है, वह प्रतिज्ञा सर्वप्रधान है, उसे अंशतः शास्त्रकार बतलाते हैं, जिसकी कामवासना दूर हो गयी है तथा जो मैं स्त्री, पशु और नपुंसक रहित स्थानों में विचरुंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करके सम्यक् चारित्र का पालन करता हुआ विचरता है, किसी प्रति में "विवित्तेसि" यह पाठ है - विविक्त, यानी स्त्री पशु और नपुंसक रहित स्थान है, उस पवित्र स्थान का शील पालन करने के लिए जो अन्वेषण करता है ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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