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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देशकेः गाथा ४-५ उपसर्गाधिकारः एते पुव्वं महापुरिसा, आहिता इह सम्मता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा, इति मेयमणुस्सुअं ॥४॥ छाया - एते पूर्व महापुरुषा भारख्याता इह सम्मताः । भुक्त्वा बीजोदकं सिद्धा इति मयानुश्रुतम् ॥ अन्वयार्थ - (पुर्व) पूर्व समय में (एते महापुरिसा) ये महापुरुष (अहिया) सर्वजगप्रसिद्ध थे (इह) तथा इस जैन आगम में भी (सम्मता) माने गये हैं । (बीओदगं) इन लोगों ने बीज और शीतल जल का उपभोग करके (सिद्धा) सिद्धि पायी थी (इति) यह (मेयमणुस्सुअं) मैने (महाभारत आदि में) सुना है। भावार्थ - कोई अन्यतीर्थी साधुओं को संयमभ्रष्ट करने के लिए कहता है कि पूर्व समय में ये महापुरुष प्रसिद्ध थे और जैन आगम में भी इनमें से कई माने गये हैं। इन लोगों ने शीतल जल और बीज का उपभोग करके सिद्धिलाभ किया था । टीका - एते पूर्वोक्ता नम्यादयो महर्षयः 'पूर्वमिति पूर्वस्मिन्काले त्रेताद्वापरादौ 'महापुरुषा' इति प्रधानपुरुषा आ - समन्तात् ख्याताः आख्याताः - प्रख्याता राजर्षित्वेन प्रसिद्धिमुपगता इहापि आर्हते प्रवचने ऋषिभाषितादौ केचन 'सम्मता' अभिप्रेता इत्येवं कुतीर्थिकाः स्वयूथ्या वा प्रोचुः, तद्यथा - एते सर्वेऽपि बीजोदकादिकं भुक्त्वा सिद्धा इत्येमेतन्मया भारतादौ पुराणे श्रुतम् ॥४॥ टीकार्थ - ये पूर्वोक्त नमी आदि महाऋषि त्रेता द्वापर आदि पूर्वकाल में महापुरुष अर्थात् प्रधान पुरुष के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध थे तथा इन लोगों ने राजर्षि रूप से प्रसिद्धि प्राप्त की थी और ऋषिभाषित आदि आर्हत प्रवचन में भी इनमें से कई माने गये हैं, ये सभी लोग शीतल जल और बीज का उपभोग करके सिद्ध हुए थे, यह मैंने महाभारत आदि पुराणों में सुना है, ऐसा कोई कुतीर्थी अथवा स्वयूथिक कहते हैं ॥४॥ एतदुपसंहारद्वारेण परिहरन्नाह - समाप्ति के द्वारा इस मत का परिहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - तत्थ मंदा विसीअंति, वाहच्छिन्ना व गद्दभा । पिट्ठतो परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥५॥ छाया - तत्र मन्दाः विषीदन्ति वाहच्छिन्ना इव गर्दभाः । पृष्ठतः परिसर्पन्ति पृष्ठसपी च सम्भ्रमे ॥ अन्वयार्थ - (तत्थ) उस बुरी शिक्षा के उपसर्ग होने पर (मंदा) मूर्ख पुरुष (वाहच्छिन्ना) भार से पीड़ित (गद्दमा व) गदहे की तरह (विसीअंति) संयम पालन करने में दुःख अनुभव करते हैं । (सम्भमे) जैसे अग्नि आदि का उपद्रव होने पर (पिट्ठसप्पो ) लकड़ी के टुकड़े की सहायता से चलनेवाला पैर रहित पुरुष (पिट्ठतो परिसप्पन्ति) भागने वाले लोगों के पीछे-पीछे चलता है, उसी तरह वह मूर्ख भी संयम पालने में सबसे पीछे हो जाता है। भावार्थ - मिथ्यादृष्टियों की पूर्वोक्त बातों को सुनकर कोई मूर्ख मनुष्य संयम पालन करने में इस प्रकार दुःख का अनुभव करते हैं, जैसे भार से पीड़ित गदहा उस भार को लेकर चलने में दुःख अनुभव करता है । तथा जैसे लकड़ी के टुकड़ों को हाथ में लेकर सरक कर चलनेवाला लंगडा मनुष्य अग्नि आदि का भय होने पर भागे हुए मनुष्यों के पीछे पीछे जाता है परंतु वह आगे तक जाने में असमर्थ होकर वहीं नाश को प्राप्त होता है । इसी तरह संयम पालन करने में दुःख अनुभव करनेवाले, वे पुरुष मोक्ष तक नहीं पहुंचकर संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं । टीका - 'तत्र' तस्मिन् कुश्रुत्युपसर्गोदये 'मंदा' अज्ञा नानाविधोपायसाध्यं सिद्धिगमनमवधार्य विषीदन्ति संयमानुष्ठाने, न पुनरेतद्विदन्त्यज्ञाः, तद्यथा - येषां सिद्धिगमनमभूत् तेषां कुतश्चिन्निमित्तात् जातजातिस्मरणादिप्रत्ययानामवाप्तसम्यग्ज्ञानचारित्राणामेव वल्कलचीरिप्रभृतीनामिव सिद्धिगमनमभूत्, न पुनः कदाचिदपि सर्वविरति २२७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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