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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोदेशके: गाथा २० उपसर्गाधिकारः टीकार्थ जिन अनुष्ठानों के करने से अपने पक्ष की सिद्धि तथा परपक्ष में दोष की उत्पत्ति आदि हो, अथवा अपने में पक्षपात रहित मध्यस्थता आदि उत्पन्न हो ऐसे अनुष्ठानों को बहुगुण प्रकल्प कहते हैं । वह अनुष्ठान प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि हैं अथवा मध्यस्थ के समान वचन बोलना बहुगुणप्रकल्प कहलाता है । अतः साधु पुरुष किसी के साथ वाद करते समय अथवा दूसरे समय में पूर्वोक्त अनुष्ठानों को ही करे । उसी साधु का विशेषण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जिसका चित्त प्रसन्न है, उस मुनि को आत्मसमाधिक कहते है । आशय यह है, जिन हेतु दृष्टान्त आदि के कहने से आत्मसमाधी अर्थात् अपने पक्ष की सिद्धि होती हो अथवा जिस मध्यस्थ वचन के कहने से दूसरे के चित्त में किसी प्रकार का दुःख उत्पन्न न हो वह कार्य साधु करे । तथा धर्म का श्रवण आदि करने में प्रवृत्त अन्यतीर्थी तथा दूसरा कोई मनुष्य जिस अनुष्ठान से अथवा भाषण से अपना विरोधी न बने वह अनुष्ठान साधु करे अथवा वचन बोले ||१९|| तदेवं परमतं निराकृत्योपसंहारद्वारेण स्वमतस्थापनायाह पूर्वोक्त प्रकार से परवादियों के मत का खण्डन करके अब शास्त्रकार समाप्ति के द्वारा अपने पक्ष की स्थापना करने के लिए कहते हैं इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए 112011 छाया इमं च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् । कुर्याद् भिक्षुग्लनस्य अग्लान्या समाहितः ॥ अन्वयार्थ - (कासवेण पवेइयं) काश्यपगोत्री भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए ( इमं च धम्ममादाय) इस धर्म को स्वीकारकर ( समाहिए ) प्रसन्नचित्त ( भिक्खू) साधु (गिलाणस्स ) रोगी साधु का ( अगिलाए ) ग्लानि रहित होकर (कुजा) वैयावच्च करे । - - भावार्थ - काश्यपगोत्री भगवान महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके प्रसन्नचित्त मुनि रोगी साधु का ग्लानि रहित होकर वैयावच्च करे । - टीका 'इम' मिति वक्ष्यमाणं दुर्गतिधारणाद्धर्मम् 'आदाय' उपादाय गृहीत्वा 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनोत्पन्नदिव्यज्ञानेन सदेवमनुजायां पर्षदि प्रकर्षेण- यथावस्थितार्थनिरूपणद्वारेण वेदितं प्रवेदितं, चशब्दात्परमतं च निराकृत्य, भिक्षणशीलो भिक्षुः 'ग्लानस्य' अपटोरपरस्य भिक्षोर्वैयावृत्त्यादिकं कुर्यात्, कथं कुर्याद् ? एतदेव विशिनष्टि स्वतोऽप्यग्लानतया यथाशक्ति 'समाहितः' समाधिं प्राप्त इति, इदमुक्तं भवति - यथा यथाऽऽत्मनः समाधिरुत्पद्यते न तत्करणेन अपाटवसम्भवात् योगा विषीदन्तीति, तथा यथा तस्य च ग्लानस्य समाधिरुत्पद्यते तथा पिण्डपातादिकं विधेयमिति ॥२०॥ - टीकार्थ - दुर्गति में जाने वाले जीवों को दुर्गति से बचानेवाला जो यह आगे वर्णित होनेवाला धर्म है, जिसको दिव्यज्ञान उत्पन्न होने पर भगवान् महावीर स्वामी ने देवता और मनुष्य आदि की सभा में सत्य अर्थ की प्ररूपणा द्वारा कहा था, तथा (च) शब्द से परमत को खण्डन करके बताया था । उस धर्म को स्वीकार करके भिक्षणशील साधु दूसरे असमर्थ रोगी साधु की वैयावच्च करे । कैसे वैयावच्च करे सो बताते हैं स्वयं ग्लान भाव को नहीं प्राप्त होते हुए यथाशक्ति समाधियुक्त होकर करे आशय यह है कि जिस प्रकार अपनी समाधि उत्पन्न होती है वैसा नहीं करने से स्वयं साधु भी रोगी होकर असमर्थ हो सकता है और ऐसा होने से उसका व्यापार ठीक नहीं हो सकता, अतः जिस प्रकार अपनी समाधि उत्पन्न हो और जिस प्रकार उस रोगी को समाधि उत्पन्न हो, उस तरह का भोजन आदि उसे देना चाहिए ||२०|| - किं कृत्वैतद्विधेयमिति दर्शयितुमाह - २२३
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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