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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा ४ उपसर्गाधिकारः टीकार्थ - जैसे युद्ध में प्रवेश करने की इच्छा करता हुआ कायर पुरुष पहले यह देखता है कि पराजित होने पर कौन सा गड्डा आदि स्थान मेरी रक्षा के निमित्त उपयुक्त होगा इसी तरह अस्थिरचित्त कोई अल्पपराक्रमी श्रमण, जीवनभर अपने को संयम पालन करने में असमर्थ देखकर भविष्य काल में होनेवाले भय के विषय में इस प्रकार चिंता करते हैं कि 'मैं निष्किञ्चन हूं, जब वृद्धावस्था आयगी अथवा कोई रोग आदि उत्पन्न होगा अथवा दुर्भिक्ष पड़ेगा, उस समय मेरी रक्षा के लिए कौन साधन होगा ? ।" इस प्रकार जीविका साधन के भय को सोच कर वे यह मानते हैं कि 'यह व्याकरण, गणित, ज्योतिष, वैद्यक और होराशास्त्र जो हम पढ़ ले तो । इनके द्वारा दुःख के समय हमारी रक्षा हो सकेगी ॥३॥" एतच्चैतेऽवकल्पयन्तीत्याह - अल्प पराक्रमी जीव यह भी कल्पना करते हैं, सो सूत्रकार कहते हैं - को जाणइ 'विऊवातं, इत्थीओ उदगाउ वा । चोइज्जंता पवक्खामो, ण णो अत्थि पकप्पियं ॥४॥ छाया - को जानाति व्यापातं स्त्रीत उदकाद्वा | चोद्यमाना प्रवक्ष्यामो न नोऽस्ति प्रकल्पितम् ।। अन्वयार्थ - (इत्थीओ) स्त्री से (उदगाउ) अथवा उदक - कच्चे जल से (विऊवातं) मेरा संयम भ्रष्ट हो जायगा (को जाणइ) यह कौन जानता है ? (णो) मेरे पास (पकप्पियं) पहले का उपार्जित द्रव्य भी (ण अत्यि) नहीं है, इसलिए (चोइजंता) किसीके पूछने पर हम हस्तिशिक्षा और धनुर्वेद आदि को (पवक्खामो) बतायेंगे । भावार्थ- संयम पालन करने में अस्थिरचित्त पुरुष यह सोचता है कि 'स्त्री सेवन से अथवा कच्चे पानी के स्नान से, किस प्रकार में संयम से भ्रष्ट होऊँगा यह कौन जानता है ? मेरे पास पूर्वोपार्जित द्रव्य भी नहीं है । अतः यह जो हमने हस्तिशिक्षा और धनुर्वेद आदि विद्याओं का शिक्षण प्राप्त किया है । इनसे ही संकट के समय हमारा निर्वाह हो सकेगा। टीका - अल्पसत्त्वाः प्राणिनो विचित्रा च कर्मणां गतिः, बहूनि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते, अतः 'को जानाति?' कः परिच्छिनत्ति 'व्यापातं' संयमजीवितात् भ्रंशं, केन पराजितस्य मम संयमाद् भ्रंशः स्यादिति, किम् 'स्त्रीतः' स्त्रीपरिषहात् उत 'उदकात्' स्नानाद्यर्थमुदकासेवनाभिलाषाद्?, इत्येवं ते वराकाः प्रकल्पयन्ति, न 'नः' अस्माकं किञ्चन 'प्रकल्पितं' पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति यत्तस्यामवस्थायामुपयोगं यास्यति, अतः 'चोद्यमानाः' परेण पृच्छयमाना हस्तिशिक्षाधनुर्वेदादिकं कुटिलविण्टलादिकं वा 'प्रवक्ष्यामः' कथयिष्यामः प्रयोक्ष्याम इत्येवं ते हीनसत्त्वाः सम्प्रधार्य व्याकरणादौ श्रुते प्रयतन्त इति, न च तथापि मन्दभाग्यानामभिप्रेतार्थावाप्तिर्भवतीति, तथा चोक्तम् - उपशमफलाद्विधाबीजात्फलं धनमिच्छतां, भवति विफलो यद्यायासस्तदा किमद्भुतम्? न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्तरमीशते, जनयति खलु व्रीहे/जं न जातु यवाङ्कुरम् ||१|| इति ॥४॥ टीकार्थ - संयम पालन करने में असमर्थ वे बिचारे यह सोचते हैं कि प्राणियों का पराक्रम अल्प होता है और कर्म की गति भी विचित्र होती है तथा प्रमाद के स्थान भी बहुत हैं । ऐसी दशा में यह कौन निश्चय । कर सकता है कि - किस उपद्रव से पराजित होकर मैं संयम से पतित हो जाऊंगा? क्या स्त्री परीषह से मेरा संयम नष्ट होगा अथवा स्नान आदि के लिए जल की इच्छा से वह बिगड़ जायगा? वे मूर्ख इस प्रकार चिन्ता करते हुए यह सोचते हैं कि मेरे पास पूर्वोपार्जित द्रव्य भी नहीं है जो संयम से पतित होने पर काम देगा, इसलिए 1. वियावात इति टीकाकृदभिप्रायः । 2. कुण्टलमण्डलादि० । कुण्टविण्टलादि०। 3. कर्तुं भा. प्र० २१०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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