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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा २२
उपसर्गाधिकारः नहीं है, तथा बाह्य और अभ्यंतर रूप अनशन आदि द्विविध तपस्या से पीड़ित है, वे मूर्ख, संयम में इस प्रकार क्लेश पाते हैं, जैसे ऊंचे मार्ग में बूढ़ा दुर्बल बैल दुःख पाता है । ऊँचे मार्ग में जवान बैल को भी कष्ट होना संभव है तो फिर बूढ़े बैल की तो बात ही क्या है? यह दर्शाने के लिए यहां 'जीर्ण' पद का ग्रहण है । जो पुरुष धीरता और संहनन (दृढ़ता) से युक्त एवं विवेकी है । उनका भी आवर्त (विघ्न) के बिना भी संयम से भ्रष्ट होना संभव है, तब फिर जो मूर्ख है और आवर्ती (विघ्न) के द्वारा उपसर्ग किये गये हैं, उनका तो कहना ही क्या है ? ॥ २१ ॥
सर्वोपसंहारमाह
सर्व कथन का उपसंहार करने के लिए कहते हैं ।
एवं निमंतणं लद्धुं, मुच्छिया गिद्ध इत्थीसु । अज्झोववन्ना कामेहिं, चोइज्जता गया गिहं
।। २२ ।। त्ति बेमि ॥ (गाथाग्रं. २१३ )
।। इति उवसगपरिण्णाए बितिओ उद्देसो सम्मत्तो ||३ - २।।
छाया
एवं निमन्त्रणं लब्ध्वा मूर्च्छिताः गृद्धाः स्त्रीषु । अध्युपपन्नाः कामेषु चोद्यमानाःगता गृहम् ॥ अन्वयार्थ - ( एवं ) पूर्वोक्त प्रकार से (निमंतणं) भोग भोगने के लिए निमंत्रण (लद्धुं) पाकर (मुच्छिया) काम भोगों में आसक्त (इत्थीसु गिद्ध) स्त्रियों में मोहित (कामेहिं) काम भोगों में (अज्झोववन्ना) दत्तचित्त पुरुष ( चोइअंता ) संयम पालन के लिए प्रेरित किये हुए (गिहं) घर को (गया) जा चुके हैं।
भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से भोग भोगने का आमंत्रण पाकर कामभोग में आसक्त, स्त्री में मोहित एवं विषय भोग में दत्तचित्त पुरुष, संयम पालन के लिए गुरु आदि के द्वारा प्रेरित करने पर भी फिर से गृहस्थ हो चुके हैं ।
टीका ' एवं ' पूर्वोक्तया नीत्या विषयोपभोगोपकारणदानपूर्वकं 'निमन्त्रणं' विषयोपभोगं प्रति प्रार्थनं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'तेषु' विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु 'मूर्च्छिता' अत्यन्तासक्ताः तथा स्त्रीषु 'गृद्धाः ' दत्तावधाना रमणीरागमोहिताः तथा 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'अध्युपपन्नाः ' कामगतचित्ताः संयमेऽवसीदन्तोऽपरेणोद्युक्तविहारिणा नोद्यमानाः - संयमं प्रति प्रोत्साह्यमाना नोदनां सोढुमशक्नुवन्तः सन्तो गुरुकर्माणः प्रव्रज्यां परित्यज्याल्पसत्त्वा गृहं गता-गृहस्थीभूताः । इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२॥
।। इति उपसर्गपरिज्ञाऽध्ययनस्य द्वितीय उद्देशः ॥
टीकार्थ विषयभोग के साधनभूत हाथी, घोड़ा और रथ आदि में अत्यंत आसक्त, स्त्री के प्रेम में मोहित, कामभोग में गतचित्त गुरुकर्मी जीव, पूर्वोक्त रीति से विषयभोग की सामग्री प्रदानपूर्वक धनवानों के द्वारा की हुई भोग भोगने की प्रार्थना को पाकर संयम पालन में ढीले हो जाते हैं । उस समय शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुसार संयम पालन करने वाले किसी साधु के द्वारा संयम पालन के लिए प्रेरित किये हुए वे पुरुष उस प्रेरणा को सहन करने में समर्थ नहीं होते हैं । किन्तु वे अल्प पराक्रमी जीव प्रव्रज्या को छोड़कर फिर गृहस्थ बन जाते हैं । इति शब्द समाप्ति का द्योतक है 'ब्रवीमि' पूर्ववत् है ।
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