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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने द्वितीयोदेशके: गाथा ८-९ उपसर्गाधिकारः भवन्तं 'वारयितुं' निषेधयितुम् 'अर्हति' योग्यो भवति, यदिवा 'अकामगं 'ति वार्द्धकावस्थायां मदनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति कस्त्वामवसरप्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं वारयितुमर्हतीति ||७|| अन्यच्च हे तात! घर जाकर, अपने स्वजनवर्ग को देखकर फिर आ जाना । केवल घर जाने मात्र से तुम अश्रमण नहीं हो जाओगे । घर के व्यापार में इच्छा रहित और अपनी रूचि के अनुसार कार्य करते हुए तुम को कौन रोक सकता है ? अथवा वृद्धावस्था आने पर जब तुम्हारी मदनेच्छा और कामना निवृत्त हो जायगी, उस समय अवसर प्राप्त संयम का अनुष्ठान करने से तुमको कौन रोक सकता है ? ॥७॥ टीकार्थ - जं किंचि अणगं तात ! तंपि सव्वं समीकत 1 । हिरण्णं ववहाराइ, तंपि दाहामु ते वयं - ॥८॥ छाया - यत् किशिदृणं तात । तत्सर्वं समीकृतम् । हिरण्यं व्यवहारादि तदपि दास्यामो वयम् ॥ अन्वयार्थ - ( तात!) हे तात! (जं किंचि अणगं) जो कुछ ऋण था । ( तं पि सव्वं ) वह भी सब ( समीकतं) हमने बांट बांटकर बराबर कर दिया है । (ववहाराइ) व्यवहार के योग्य जो (हिरण्णं) सोना, चांदी आदि हैं (तपि) वह भी (ते) तुझको (वयं) हमलोग (दाहामु) देंगे। भावार्थ - हे तात! तुम्हारे ऊपर जो ऋण था, वह भी हम लोगों ने बराबर बांट कर ले लिया है। तथा तुम्हारे व्यवहार के लिए जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी, वह भी हम लोग देंगे। टीका 'तात' पुत्र ! यत्किमपि भवदीयमृणजातमासीत्तत्सर्वमस्माभिः सम्यग्विभज्य 'समीकृतं' समभागेन व्यवस्थापितं, यदिवोत्कटं सत् समीकृतं • सुदेयत्वेन व्यवस्थापितं यच्च 'हिरण्यं' द्रव्यजातं व्यवहारादावुपयुज्यते, आदिशब्दात् अन्येन वा प्रकारेण तवोपयोगं यास्यति तदपि वयं दास्यामः, निर्धनोऽहमिति मा कृथा भयमिति ॥८॥ - टीकार्थ हे पुत्र ! तुम्हारे ऊपर जो ऋण था, वह भी हमलोगों ने अच्छी तरह बांटकर बराबर कर दिया है । अथवा तुम्हारे उपर जो भारी ऋण था, उसकी हमलोगों ने ऐसी व्यवस्था कर दी है। जिससे वह सुगमता के साथ चुकाया जा सकता है । तथा अबसे जो कुछ द्रव्य तुम्हारे व्यवहार के लिए उपयुक्त होगा, एवं आदि शब्द से किसी दूसरे प्रकार से जो द्रव्य तुम्हारे उपयोग के लिए आवश्यक होगा, वह भी हम लोग देंगे इसलिए 'मैं निर्धन हूं" ऐसा भय तुम मत करो ॥ ८॥ उपसंहारार्थमाह अब इस विषय को समाप्त करने के लिए सूत्रकार कहते हैं इच्चेव णं सुसेहंति, कालुणीयसमुट्ठिया । विबद्धो नाइसंगेहिं, ततोऽगारं पहावइ इत्येव सुशिक्षयन्ति कारुण्यसमुपस्थिताः । विबद्धो ज्ञातिसङ्गैस्ततोऽगारं प्रधावति ॥ ।।९।। छाया - अन्वयार्थ - (कालुणीयसमुट्ठिया) करुणा से युक्त बन्धु बांधव ( इच्चेव ) इस प्रकार ( सुसेहन्ति ) साधु को शिक्षा देते हैं । (नाइसङ्गेहिं) ज्ञाति के सङ्ग से (विबद्धो) बंधा हुआ जीव (ततो) उस समय ( अगारं) घर की ओर ( पहावइ) दौड़ता है । भावार्थ करुणा से भरे हुए बन्धुबान्धव, साधु को उक्त रीति से शिक्षा देते हैं। पश्चात् उन ज्ञातियों के संग से बंधा हुआ गुरुकर्मी जीव, प्रव्रज्या को छोड़कर घर चला जाता है। 1. उत्तारितं चू. १९९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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