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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १५-१६ उपसर्गाधिकारः ___टीकार्थ - जिससे आत्मा दण्ड का भागी बनता है अर्थात् वह अपने कल्याण से भ्रष्ट हो जाता है । उस आचार को 'आत्मदण्ड' कहते हैं । ऐसा अनुष्ठान करनेवाले अनार्य पुरुष 'आत्मदण्डसमाचार' कहलाते हैं । तथा जिनकी चित्तवृत्ति विपरीत है अर्थात् अपने असत् आग्रह में हैं, वे मिथ्यादृष्टि पुरुष 'मिथ्यासंस्थितभावना' कहलाते हैं । एवं जो हर्ष और द्वेष से युक्त हैं अर्थात् जो रागद्वेष से भरे हुए हैं ऐसे अनार्य्य पुरुष, अपने चित्त के विनोद के लिए अथवा द्वेषवश अथवा क्रूर कर्म करने वाले होने के कारण लाठी आदि के प्रहार द्वारा अथवा गाली आदि देकर सदाचारी साधु को पीड़ित किया करते हैं ॥१४।। एतदेव दर्शयितुमाह - इसी बात को दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं अप्पेगे पलियते सिं, 'चोरो चोरोत्ति सुव्वयं । बंधति भिक्खुयं बाला, कसायवयणेहि य ॥१५॥ छाया - अप्येके पर्यन्ते चोरशोर इति सुव्रतम् । बन्धन्ति भिक्षुकं बालाः कषायवचनेश्च ॥ अन्वयार्थ - (अप्पेगे) कई (बाला) अज्ञानी पुरुष, (पलियते सिं) अनार्यादेश के आसपास विचरते हुए (सुव्वयं) सुव्रत (भिक्खुयं) साधु को (चोरो चोरोत्ति) यह खुफिया है या चोर है ऐसा कहते हुए (बंधति) रस्सी आदि से बांधते हैं और (कसायवयणेहि य) और कटु वचन कहकर साधु को पीड़ित करते हैं। भावार्थ- कोई अज्ञानी पुरुष, अनार्य्य देश के आसपास विचरते हुए सुव्रत साधु को 'यह चोर अथवा खुफिया है' ऐसा कहते हुए रस्सी आदि से बांध देते हैं और कटु वचन कहकर उनको पीड़ित करते हैं । टीका - अपिः सम्भावने, एके अनार्या आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यात्वोपहतबुद्धयो रागद्वेषपरिगताः साधुं 'पलियंतेसिति अनार्यदेशपर्यन्ते वर्तमानं 'चोरो'त्ति चोरोऽयं 'चौरः' अयं स्तेन इत्येवं मत्वा सुव्रतं कदर्थयन्ति, तथाहि'बध्नन्ति' रज्ज्वादिना संयमयन्ति 'भिक्षुक' भिक्षणशीलं 'बाला' अज्ञाः सदसद्विवेकविकलाः तथा 'कषायवचनैश्च' क्रोधप्रधानकटुकवचनैर्निर्भर्त्सयन्तीति ।।१५।। टीकार्थ - 'अपि' शब्द संभावनार्थक है। अर्थात् ऐसा होना भी संभव है । इस बात को बताने के लिए आया है। जिससे आत्मा. परलोक में दंड का भागी बनता है ऐसा आचार करनेवाले, मिथ्यात्व से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी है, ऐसे कोई रागद्वेषवशीभूत अनार्यपुरुष, अनार्य्य देश के आसपास विचरते हुए साधु को देखकर 'यह चोर है। अथवा खुफिया है, ऐसा मानकर पीड़ा देते हैं। वे रस्सी आदि से बाँधकर साधु को दुःखित करते हैं तथा सत् और असत् के विवेक से वर्जित वे अज्ञानी क्रोधभरे कटु वचनों से साधु को धमकाते हैं ॥१५॥ और भी - अपिच इस विषय में दृष्टांत कहते हैं - तत्थ दंडेण संवीते, मुट्ठिणा अदुफलेण वा । नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ छाया - तत्र दण्डेन संवीतो ऽथवा फलेन वा । ज्ञातीनां स्मरति बालः स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी ॥ अन्वयार्थ - (तत्थ) वहां (दंडेण) लाठी (मुट्ठिणा) मुक्का (अदु) अथवा (फलेण) फल के द्वारा (संवीते) ताड़ित किया हुआ (बाले) अज्ञानी पुरुष (कुद्धगामिणी) क्रोधित होकर घर से निकलकर भागनेवाली (इत्थी वा) स्त्री की तरह (नातीणं) अपने स्वजनवर्ग को (सरती) स्मरण करता बात मानस 1. येषां परस्परविरोधः 2. खीलो दण्डपहारो वा चू. 3. चवेडा १९२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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