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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १२ उपसर्गाधिकारः स्वयमज्ञाः, तुशब्दादन्येषां च विवेकिनां वचनमकुर्वाणाः सन्तस्ते 'तमसः' अज्ञानरूपादुत्कृष्टं तमो 'यान्ति' गच्छन्ति, यदि वा - अधस्तादप्यधस्तनीं गतिं गच्छन्ति, यतो 'मन्दा' ज्ञानावरणीयेनावष्टब्धाः तथा 'मोहेन' मिथ्यादर्शनरूपेण 'प्रावृता' आच्छादिताः सन्तः खिङ्गप्रायाः साधुविद्वेषितया कुमार्गगा भवन्ति, तथा चोक्तम् - एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् । एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्वतोऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः? ||१|| ||११|| __टीकार्थ - कोई पापी पुरुष, पूर्वोक्त प्रकार से साधु और सन्मार्ग से द्रोह करते हैं। वे स्वयं अज्ञानी हैं और 'तु' शब्द से वे दूसरे ज्ञानियों का कहना भी नहीं मानते । वे मूर्ख जीव, अज्ञानरूप अंधकार से निकलकर उससे उत्कृष्ट दूसरे अज्ञान को प्राप्त करते हैं, अथवा वे नीची से भी नीची गति में जाते हैं, क्योंकि वे ज्ञानावरणीय कर्म से ढंके हुए और मिथ्यादर्शनरूपी मोह से आच्छादित हैं । वे अंधतुल्य पुरुष साधु से द्वेष करने के कारण कुमार्ग का सेवन करने वाले हैं। विद्वानों ने कहा है कि ___ "एक नेत्र तो स्वाभाविक निर्मल विवेक है और दूसरा नेत्र विवेकी जन के साथ निवास करना है, परंतु जिसके पास ये दोनो नेत्र नहीं है, वस्तुतः पृथिवी पर वही अंधा है। वह यदि कमार्ग में जाय तो उसका दोष क्या है? ॥११॥ कि दंशमशकपरीषहमधिकृत्याह - अब सूत्रकार दंश और मच्छरों के परीषह के विषय में कहते हैं - पुट्ठो य दंसमसएहिं, तणफासमचाइया । न मे दिटे परे लोए, जइ परं मरणं सिया ॥१२॥ छाया - स्पष्टश्च दंशमशकस्तृणस्पर्शमशक्नुवन्तः । न मया दृष्टः परो लोकः, यदि परं मरणं स्यात् ॥ अन्वयार्थ - (दंसमसएहिं) दंश और मच्छरों के द्वारा स्पर्श किया गया तथा (तणफासमचाइया) तृणस्पर्श को नहीं सह सकता हुआ साधु (यह भी सोच सकता है कि) (मे) मैंने (परे लोए) परलोक को तो (न दिटे) नहीं देखा है (परं) परंतु (जइ) कदाचित् (मरणं सिया) इस कष्ट से मरण तो संभव ही है। भावार्थ - दंश और मच्छरों का स्पर्श पाकर तथा तृण की शय्या के रुक्ष स्पर्श को सहन नहीं कर सकता हुआ नवीन साधु यह भी सोचता है कि मैंने परलोक को तो प्रत्यक्ष नहीं देखा है परंतु इस कष्ट से मरण तो प्रत्यक्ष दीखता टीका - क्वचित्सिन्धुताम्रलिप्तकोङ्कणादिके देशे अधिका दंशमशका भवन्ति, तत्र च कदाचित्साधुः पर्यटैस्तैः 'स्पृष्टश्च' भक्षितः तथा निष्किञ्चनत्वात् तृणेषु शयानस्तत्स्पर्श सोढुमशक्नुवन् आतः सन् एवं कदाचिच्चिन्तयेत्, तद्यथा- परलोकार्थमेतदुष्करमनुष्ठानं क्रियमाणं घटते, न चासौ मया परलोकः प्रत्यक्षेणोपलब्धः, अप्रत्यक्षत्वात्, नाप्यनुमानादिनोपलभ्यत इति, अतो यदि परं ममानेन क्लेशाभितापेन मरणं स्यात्, नान्यत्फलं किञ्चनेति ॥१२॥ अपि च - टीकार्थ - सिंधु, ताम्रलिप्त और कोंकण आदि देशों में दंश और मच्छर बहत होते हैं। वहां भ्रमण करता हुआ साधु कदाचित् दंश और मच्छरों से डंसा जाय और परिग्रह रहित होने के कारण तृण की शय्या पर सोया हुआ वह तृण के रूक्ष स्पर्श को नहीं सह सकता हुआ आर्त होकर कदाचित् यह भी सोच सकता है कि यह जो मैं दुष्कर अनुष्ठान करता हूँ, यह परलोक होने पर ही उचित कहा जा सकता है परंतु मैंने परलोक को प्रत्यक्ष नहीं देखा है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है । तथा अनुमान आदि से भी परलोक की उपलब्धि नहीं होती है । ऐसी दशा में यदि मेरा कष्ट से मरण हो जाय तो वही इसका फल होगा इसके सिवाय दूसरा कोई फल नहीं है ॥१२॥ १९०
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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