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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ७-८ उपसर्गाधिकारः हो जाता है। मांगनेवाले की गति, (चलना) बिगड़ जाती है, मुख, दीन हो जाता है, शरीर से पसीना बहने लगता है और उसका वर्ण फीका हो जाता है इस प्रकार मरण समय में जितने चिह्न दिखायी देते हैं। वे सब याचक पुरुष में लक्षित होते हैं । इस प्रकार दुःसह्य याञ्चापरीषह को त्यागकर अभिमान रहित महासत्त्व जीव ही, ज्ञान आदि की वृद्धि के लिए महापुरुषों से सेवित मार्ग के अनुगामी होते हैं । अब सूत्रकार गाथा के उत्तरार्ध से आक्रोश परीषह बतलाते हैं । साधारण पुरुष जो अनार्य के सदृश होते हैं । वे साधु को देखकर यह कहते हैं कि - "ये जो मल से परिपूर्ण शरीरवाले, लुञ्चितशिर, क्षुधा आदि वेदनाओं से पीड़ित साधु हैं, वे अपने पूर्वकृत पाप कर्मों से पीड़ित हैं । ये अपने पाप कर्म का फल भोग रहे हैं अथवा ये लोग कृषि आदि कर्मों से पीड़ित होकर अर्थात कृषि आदि कर्म करने में असमर्थ होकर साधु बन गये हैं। तथा ये लोग अभागे हैं । ये स्त्री, पुत्र आदि सभी पदार्थों से हीन और आश्रय रहित होने के कारण प्रव्रज्याधारी हुए हैं ॥६॥ एते सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्थ मंदा विसीयंति, संगामंमिव भीरुया ॥७॥ छाया - एतांश्छब्दानशक्नुवन्तो ग्रामेषु नगरेषु वा । तत्र मब्दाः विषीदन्ति सङ्ग्राम इव भीरुकाः ॥ अन्वयार्थ - (गामेसु) ग्राम में (णगरेसु वा) अथवा नगरों में (एते) इन (सद्दे) शब्दों को (अचायंता) सहन नहीं कर सकते हुए (मंदा) मन्दमति जीव (तत्थ) उस आक्रोशशब्द को सुनकर (विसीयंति) इस प्रकार विषाद करते हैं (व) जैसे (भीरुया) भीरु पुरुष (संगामंमि) सङ्ग्राम में विषाद करता है। भावार्थ - ग्राम नगर अथवा अंतराल में स्थित मन्दमति प्रवजित पर्वोक्त निन्दाजनक शब्दों को सनकर इस प्रकार विषाद करता है, जैसे सङ्ग्राम में कायर पुरुष विषाद करता है । ___टीका - 'एतान्' पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान् तथा चौरचारिकादिरूपान् शब्दान् सोढुमशक्नुवन्तो ग्रामनगरादौ तदन्तराले वा व्यवस्थिताः 'तत्र' तस्मिन् आक्रोशे सति 'मन्दा' अज्ञा लघुप्रकृतयो 'विषीदन्ति' विमनस्का भवन्ति संयमाद्वा भ्रश्यन्ति, यथा भीरवः ‘सङ्ग्रामे' रणशिरसि चक्रकुन्तासिशक्तिनाराचाकुले रटत्पटहशङ्खझल्लरीनादगम्भीरे समाकुलाः सन्तः पौरुषं परित्यज्यायशःपटहमङ्गीकृत्य भज्यन्ते, एवमाक्रोशादिशब्दाकर्णनादल्पसत्त्वाः संयमे विषीदन्ति।।७।। टीकार्थ - जो पुरुष लघुप्रकृति तथा मूर्ख हैं । वे ग्राम नगर या उनके मध्य भाग में रहते हुए पूर्वोक्त निन्दाजनक चोर जार आदि शब्दों को सुनकर उनको सहन करने में असमर्थ होकर उदास हो जाते हैं अथवा संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। जैसे कायर पुरुष, चक्र, कन्त, तलवार, शक्ति और बाणों से आकल तथा बजते हए शंख और झल्लरी के नाद से गंभीर सङ्ग्राम में घबराकर पौरुष को छोड़कर अपयश को स्वीकार कर भाग जाते हैं। इसी तरह आक्रोश शब्दों को सुनकर अल्पपराक्रमी प्रव्रजित संयम में विषाद करते हैं ॥७॥ वधपरीषहमधिकृत्याह - अब सूत्रकार वधपरीषह के विषय में कहते हैं - अप्पेगे खुधियं भिक्खुं, सुणी डंसति लूसए । तत्थ मंदा विसीयंति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥८॥ छाया - अप्येकः क्षुधितं, भिक्षु सुनिदशति लूषकः । तत्र मन्दाः विषदन्ति तेजस्पृष्टा इव प्राणिनः ॥ अन्वार्य - (अप्पेगे) यदि कोई (लूसए) क्रूर प्राणी कुत्ता आदि (खुधिय) भूखे (भिक्खु) साधु को (सुणी डंसति) काटने लगता है तो (तत्थ) १८७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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