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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना ___ अब नियुक्तिकार सूत्र और कृत पद का निक्षेप बताने के लिए कहते हैं । नियुक्तिकार नाम और स्थापना को छोड़कर "पोण्डयाइ" इत्यादि गाथा के द्वारा द्रव्य सूत्र बतलाते हैं । कपास तथा आदि शब्द से अंडा और बाल से उत्पन्न सूत को 'द्रव्यसूत्र' कहते हैं । भाव सूत तो इस अधिकार में सूचना करनेवाला ज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान है क्योंकि वही स्वसिद्धान्त तथा परसिद्धान्त रूप अर्थ को सूचित करता है । वह श्रुतज्ञान सूत्र चार प्रकार का है। जैसे कि- (१) संज्ञासूत्र, (२) संग्रहसूत्र, (३) वृत्तनिबद्धसूत्र और (४) जातिनिबद्धसूत्र । जो सूत्र अपने किये संकेत के अनुसार रचा गया है, वह 'संज्ञासूत्र' है । जैसे- "जे छेए" इत्यादि सूत्र संज्ञा सूत्र है। (इसका अर्थ यह है कि चतुर पुरुष मैथुन सेवन न करे तथा संब दोषों को जानकर और उन्हें छोड़कर विचरे । यहाँ 'सागारिक' तथा 'आमगंध' शब्द स्वशास्त्रसंकेतित हैं, अतः यह संज्ञासूत्र है।) इसी तरह लोक में भी पुद्गलाः, संस्कारः क्षेत्रज्ञाः" इत्यादि संज्ञासूत्र हैं । (यहाँ पुद्गल संस्कार और क्षेत्रज्ञपद संकेतित हैं) जो सूत्र बहुत अर्थो को संग्रह करता है उसे संग्रहसूत्र कहते हैं। जैसे द्रव्य कहने से धर्म-अधर्म आदि समस्त द्रव्यों का संग्रह होता है । अथवा उत्पत्ति, विनाश और नित्यता से युक्त पदार्थ सत् है । (यहाँ सत् शब्द से सभी द्रव्यों का संग्रह होता है, इसलिए उक्त सूत्र संग्रह सूत्र है ।) जो सूत्र अनेक प्रकार के छन्दों में रचा गया है, वह 'वृत्तनिबद्ध' सूत्र है । जैसे- "बुज्झिज्जति तिउट्टिज्जा" इत्यादि सूत्र 'वृत्तनिबद्धसूत्र' है। जातिनिबद्धसूत्र चार प्रकार का होता है जैसे कि 'कथनीय' । जिसमें किसी की कथा होती है, वह कथनीय सूत्र है । जैसे उत्तराध्ययन और ज्ञाताधर्मकथा इत्यादि । इन सूत्रों में प्रायः प्राचीन ऋषियों का चरित्र वर्णित हुआ है । तथा ब्रह्मचर्याध्ययन आदि (२) गद्यसूत्र हैं । छन्दोनिबद्धसूत्र, (३) पद्यसूत्र हैं । जो सूत्र स्वर मिलाकर गाया जाता है, उस गीतिकाप्राय सूत्र को 'गेयसूत्र' कहते हैं । जैसे कापिलीय अध्ययन इत्यादि। "अधुवे असासयंमि" इत्यादि सूत्र गेयसूत्र हैं ॥३॥नि०॥ इदानीं कृतपदनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृद्गाथामाहकणं च कारओ य कडं च तिण्हंपि छक्क निक्यो । दव्ये खित्ते काले भायेण उ कारओ जीयो॥४॥ नि० इह कृतमित्यनेन कर्मोपात्तं, न चाकर्तृकं कर्म भवतीत्यर्थात्कर्तुराक्षेपो धात्वर्थस्य च करणस्य, अमीषां त्रयाणामपि प्रत्येकं नामादिः षोढा निक्षेपः । तत्र गाथापश्चार्धेनाल्पवक्तव्यत्वात्तावत्करणमतिक्रम्य कारकस्य निक्षेपमाह। तत्र नामस्थापने प्रसिद्धत्वादनादृत्य द्रव्यादिकं दर्शयति "दव्वे" इति । द्रव्यविषये कारकश्चिन्त्यः स च द्रव्यस्य, द्रव्येण, द्रव्यभूतो वा कारको द्रव्यकारकः, तथा क्षेत्रे भरतादौ यः कारको यस्मिन् वा क्षेत्रे कारको व्याख्यायते स क्षेत्रकारकः, एवं कालेऽपि योज्यम. 'भावेन त' भावद्वारेण चिन्त्यमानो जीवोऽत्र कारको, यस्मात्सूत्रस्य गणधरः कारकः । एतच्च नियुक्तिकृदेवोत्तरत्र वक्ष्यति "ठीई अणुभावे" इत्यादौ ॥४॥नि०॥ अब नियुक्तिकार कृतपद का निक्षेप बताने के लिए गाथा कहते हैं । "करणं च" इत्यादि गाथा में कृतपद के द्वारा कर्म का ग्रहण किया गया है । कर्ता के बिना कर्म नहीं होता है, इसलिए यहाँ कर्म से कर्ता और धात्वर्थकरण का आक्षेप होता है । कर्ता, कर्म और करण इन तीनों के प्रत्येक का नाम आदि छ: निक्षेप होते हैं । कर्ता के निक्षेप में, करण की अपेक्षा अल्पवक्तव्य है, इसलिए करण को छोड़कर गाथा के उत्तरार्ध के द्वारा पहले कर्ता का निक्षेप बतलाते हैं । प्रसिद्ध होने के कारण नाम और स्थापना को छोड़कर कर्ता के द्रव्य आदि निक्षेप बताये जाते हैं । अब द्रव्य के विषय में कर्ता का विचार किया जाता है । जो द्रव्य का कर्ता है अथवा जो द्रव्य के द्वारा कर्ता है अथवा जो द्रव्य रूप कर्ता है, उसे 'द्रव्यकारक' कहते हैं । तथा भरत आदि क्षेत्र में जो कर्ता है अथवा जिस क्षेत्र में कर्ता की व्याख्या की जाती है, वह 'क्षेत्रकारक' कहलाता है । इसी तरह काल में भी कारक (कर्ता) की योजना कर लेनी चाहिए । भाव विषय में विचार करने पर भाव द्वारा जो कारक (कर्ता) है, वह 'भावकारक' है । भावकारक यहाँ जीव है, क्योंकि सूत्र के कारक यहाँ गणधर हैं । नियुक्तिकार आगे चलकर "ठीई अणुभावे" इत्यादि गाथा के द्वारा यह बतलायेंगे ॥४॥नि०॥
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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