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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशके: गाथा २२ अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः व्याकरण - - ( एवं) अव्यय (से) श्री ऋषभदेव स्वामी का परामर्शक सर्वनाम (उदाहु) क्रिया (अणुत्तरनाणी) (अणुत्तरदंसी) (अणुत्तरनाणदंसणधरे) (अरहा) (नायपुत्ते) (भगवं) ये सब श्री महावीर स्वामी के विशेषण हैं । (वेसालिए) अधिकरण (वियाहिए ) क्रिया । अन्वयार्थ - ( एवं) इस प्रकार (से) भगवान् ऋषभदेवजी ने (उदाहु) कहा था (अणुत्तरनाणी) उत्तम ज्ञानवाले ( अणुत्तरदंसी) उत्तम दर्शनवाले ( अणुत्तरणाणदंसण धरे) उत्तम ज्ञान और दर्शन के धारक (अरहा) इन्द्रादि देवों के पूजनीय ( नायपुत्ते) ज्ञातपुत्र (भगवं) ऐश्वर्य्यादिगुण युक्त श्रीवर्धमान स्वामी ने (वेसालिए) विशाला नगरी में (आहिए ) कहा था (त्तिबेमि) सो मैं कहता हूँ । भावार्थ - उत्तमज्ञानी उत्तम दर्शनी तथा उत्तम ज्ञान और दर्शन के धारक इन्द्रादि देवों के पूजनीय ज्ञात पुत्र भगवान् श्री वर्धमान स्वामी ने विशाला नगरी में यह हम लोगों से कहा था अथवा ऋषभदेव स्वामी ने अपने पुत्रों से यह कहा था, सो मैं आपसे कहता हूँ। यह श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं । टीका - 'एवं से' इत्यादि, एवम् उद्देशकत्रयाभिहितनीत्या स ऋषभस्वामी स्वपुत्रानुद्दिश्य उदाहृतवान्, प्रतिपादितवान् । नाऽस्योत्तरं प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं तच्च तज्ज्ञानं च अनुत्तरज्ञानं तदस्याऽस्तीत्यनुत्तरज्ञानी स तथाऽनुत्तरदर्शी, सामान्यविशेषपरिच्छेदकावबोधस्वभाव इति, बौद्धमतनिरासद्वारेण ज्ञानाधारं जीवं दर्शयितुमाह- अनुत्तरज्ञानदर्शनधर इति, कथञ्चिद्विन्नज्ञानदर्शनाधार इत्यर्थः । अर्हन् सुरेन्द्रादिपूजार्हो ज्ञातपुत्रो वर्द्धमानस्वामी ऋषभस्वामी वा भगवान् ऐश्वर्य्यादिगुणयुक्तो विशाल्यां नगर्यां वर्द्धमानोऽस्माकमाख्यातवान् ऋषभस्वामी वा विशालकुलोद्भवत्वाद्वैशालिकः तथा चोक्तम् “विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा । विशालं, वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिन: । " एवमसौ जिन आख्यातेति । इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थो, ब्रवीमीति उक्तार्थो, नयाः पूर्ववदिति ॥ २२ ॥ ॥ तृतीय उद्देशकः समाप्तः तत्समाप्तौ च समाप्तं द्वितीयं वैतालीयमध्ययनम् ॥ टीकार्थ - पूर्वोक्त तीन उद्देशको में जो बात कही गयी है, वह श्री भगवान् ऋषभदेव स्वामी ने अपने पुत्रों के लिए कही थी । जिससे उत्तम दूसरा नहीं है, उसे अनुत्तर कहते हैं । जो ज्ञान, सर्वोत्तम हैं, उसे अनुत्तरज्ञान कहते हैं । वह अनुत्तर ज्ञान भगवान् का था, इसलिए भगवान् अनुत्तर ज्ञानी थे । तथा भगवान् अनुत्तरदर्शी थे । वह सामान्य और विशेष को प्रकाशित करनेवाला जो ज्ञान है तत्स्वभावी थे । अब बौद्ध मत का खण्डनपूर्वक ज्ञान का आधार रूप जीव को दिखाने के लिए कहते हैं कि भगवान् अपने से कथंचित् भिन्न जो ज्ञान और दर्शन हैं, उनका आधार थे, इन्द्रादि देवों के पूजनीय ज्ञातपुत्र श्री वर्धमान स्वामी अथवा श्री ऋषभदेव स्वामी है, विशाला माता के पुत्र ऐश्वर्य्यादि गुणयुक्त श्री वर्धमान स्वामी ने हम लोगों से यह कहा था । अथवा विशाल कुल में उत्पन्न होने के कारण श्री ऋषभदेवजी को यहाँ वैशालिक कहा है । अत एव विद्वानों ने कहा है कि अर्थात् श्री महावीर स्वामी की माता विशाला थी, और कुल भी विशाल था । तथा उनका प्रवचन भी विशाल था, इसलिए वे वैशालिक जिन कहलाते हैं । - इस प्रकार उस जिनेश्वर ने कहा है । इति शब्द समाप्तयर्थक है । 'ब्रवीमि' का अर्थ कह दिया है । नय भी पूर्व के समान ही हैं । दूसरे अध्ययन का तीसरा उद्देशा पूर्ण हुआ । दूसरा वैतालिय नामका अध्ययन भी संपूर्ण हुआ । चूर्णि में, एक प्रत में अंतिम गाथा के बाद एक गाथा और दी है । इसे यहाँ दी है । १७८ इति क्रम्मवियालमुत्तमं जिणवीरेण सुदेसियं सया । जे आचरंति आहियं खवितरया वइहिंति ते सिवं गतिं ॥ ॥ त्ति बेमि ॥ वहाँ लिखा है एक प्रत में गतिं शब्द नहीं है ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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