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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशकः गाथा १८ अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः "एको करेइ कम्मं फलमवि तस्सिकओ समणुहवइ । एक्को जायइ मरइ य परलोयं एक्कओ जाइ२|"||१७|| अन्यच्च टीकार्थ - पूर्वजन्म में उपार्जन किये हुए असाता वेदनीय के उदय से जब जीव के ऊपर दुःख आता है तब वह अकेला ही उसे भोगता हैं। उस समय धन अथवा ज्ञाति वर्ग कुछ भी उसकी सहायता नहीं कर सकते हैं । अत एव कहा है कि - "सयणस्सवि" अर्थात रोग से पीड़ित जीव अपने स्वजन वर्ग के मध्य में रहकर भी अकेला दुःख भोगता है । स्वजन वर्ग उसके उस रोग को न तो घटा सकते हैं और नहीं नाश कर सकते हैं । अथवा उपक्रम के कारणों से जब प्राणी की आयु नष्ट हो जाती है तथा उसकी अवधि पूरी होने पर जब वह पूर्ण हो जाती है अथवा जब मरण काल उपस्थित हो जाता है, तब अकेला ही वह प्राणी परलोक में जाता है और वहाँ से इस लोक में फिर अकेला ही आता है। उस समय उसका कोई भी साथी नहीं होता है, इसलिए विवेकी पुरुष, जो संसार के यथावस्थित स्वभाव को जानता है, वह धनादि को थोड़ा भी अपना रक्षक नहीं मानता है, फिर सम्पूर्ण रूप से मानने की तो बात ही क्या है ? कहा भी है - "एकस्य" अर्थात इस जगत में जीव अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है । तथा इस संसार चक्र में वह अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है, इसलिए मरण पर्यन्त अकेला ही जीव को अपना हित सम्पादन करना चाहिए । तथा “एक्को" जीव अकेला कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है । वह अकेला ही परलोक में जाता है ||१७|| सव्वे सयकम्मकप्पिया, अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडंति भयाउला सढा, 'जाइजरामरणेहिऽभिदुता ॥१८॥ छाया - सर्वे स्वककर्मकल्पिता अव्यक्तेन दुःखेन प्राणिनः । हिण्डन्ति भयाकुलाः शठाः जातिजरामरणैरभिद्रुताः ॥ व्याकरण - (सयकम्मकप्पिया) प्राणी का विशेषण (जाइजरामरणेहि) अभिद्रवण क्रिया का कर्ता (अभिदुदुता) प्राणी का विशेषण (भयाउला, सढा) प्राणी के विशेषण (पाणिणो) कर्ता (अवियत्तेण दुहेण) इत्थंभूतलक्षण तृतीयान्त (हिंडंति) क्रिया । अन्वयार्थ - (सब्बे पाणिणो) सब प्राणी (सयकम्मकप्पिया) अपने-अपने कर्म से नाना अवस्थाओं से युक्त हैं (अवियत्तेण दुहेण) और सब अलक्षित दुःख से दुःखी हैं (जाइजरामरणेहि) जन्म, जरा और मरण से (अभिडुता) पीड़ित (भयाउला) और भय से आकुल (सढा) शठ जीव (हिंडंति) बार-बार संसार चक्र में भ्रमण करते हैं। भावार्थ- सब प्राणी, अपने-अपने कर्मानुसार नाना अवस्थाओं से युक्त हैं और सब अलक्षित दुःख से दुःखी हैं । तथा जन्म, जरा-मरण से पीड़ित भयाकुल वे शठ प्राणी, बार-बार संसार चक्र में भ्रमण करते हैं। टीका - सर्वेऽपि संसारोदरविवरवर्तिनः प्राणिनः संसारे पर्यटन्तः स्वकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मणा कल्पिताः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकैकेन्द्रियादिभेदेन व्यवस्थिताः, तथा तेनैव कर्मणैकेन्द्रियाद्यवस्थायाम् अव्यक्तेन अपरिस्फुटेन शिरःशूलाद्यलक्षितस्वभावेनोपलक्षणार्थत्वात् प्रव्यक्तेन च दुःखेन असातावेदनीयस्वभावेन समन्विताः प्राणिनः पर्यटन्तिअरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन तास्वेव योनिषु भयाकुलाः शठकर्मकारित्वात् शठा भ्रमन्ति, जातिजरामरणैरभिद्रुता गर्भाधानादिभिर्दुःखैः पीडिता इति ॥१८॥ किञ्च टीकार्थ - दूसरी बात यह है कि संसार के उदर रूपी विवर में निवास करनेवाले सब प्राणी संसार में पर्यटन करते हुए अपने किये हुए ज्ञानावरणीय आदि कर्म के प्रभाव से सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, और एकेन्द्रिय आदि अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं । वे प्राणी इन अवस्थाओं में शिर का शूल आदि अलक्षित दुःखों से दुःखी होते 1. एकः करोति कर्म फलमपि तस्यैककः समनुभवति । एको जायते म्रियते च परलोकमेकको याति ।।२।। 2. वाधि चू. । IV
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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