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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने तृतीयोद्देशके: गाथा १० अनित्यताप्रतिपादकाधिकारः व्याकरण - ( इह ) अव्यय (जे, आरंभनिस्सिया, आतदंडा, एगंतलूसगा, ते) ये सब अध्याहृत नर के विशेषण हैं ( पावलोगयं) कर्म (चिरराय) क्रिया विशेषण (आसुरियं दिसं ) पापलोक का विशेषण (गंता) नर का विशेषण । अन्वयार्थ - ( इह ) इस लोक में (जे) जो मनुष्य (आरंभनिस्सिया) आरंभ में आसक्त (आतदंडा) आत्मा को दंड देनेवाले ( एगंतलूसगा ) और एकान्त रूप से प्राणियों के हिंसक हैं (ते) वे (पावलोगयं) पापलोक यानी नरक में (चिररायं) चिरकाल के लिए (गंता) जाते हैं (आसुरियं दिसं) तथा वे असुर सम्बन्धी दिशा को जाते हैं । भावार्थ - जो मनुष्य आरंभ में आसक्त तथा आत्मा को दंड देनेवाले और जीवों के हिंसक हैं, वे चिरकाल के लिए नरक आदि पापलोकों में जाते हैं। यदि बाल तपस्या आदि से वे देवता हों तो भी अधम असुरसंज्ञक देवता होते हैं । टीका ये केचन महामोहाकुलितचेतसः इह अस्मिन् मनुष्यलोके आरम्भे हिंसादिके सावद्यानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः संबद्धा अध्युपपन्नास्ते आत्मानं दण्डयन्तीत्यात्मदण्डकाः, तथैकान्तेनैव जन्तूनां लूषकाः हिंसकाः सदनुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः, एवंभूताः गन्तारो यास्यन्ति पापं लोकं पापकारिणां यो लोको नरकादिः, चिररात्रम् इति प्रभूतं कालं तन्निवासिनो भवन्ति, तथा बालतपश्चरणादिना यद्यपि तथाविधदेवत्वापत्तिः तथापि असुराणामियमासुरी तां दिशं यान्ति अपरप्रेष्याः किल्बिषिकाः देवाधमाः भवन्तीत्यर्थः ॥९॥ किञ्च - - टीकार्थ महा मोह के प्रभाव से जिनका चित्त आकुल है, ऐसे जो लोग इस मनुष्यलोक में सावद्यानुष्ठान रूप हिंसा आदि कार्यों में निश्चय रूप से आसक्त हैं तथा आत्मा को दंड देनेवाले और प्राणियों के एकान्त रूप से हिंसक हैं अथवा सत्कर्म के विध्वंसक हैं, वे पापियों के लोक नरक आदि स्थानों में जाते हैं और वे वहाँ चिरकाल तक निवास करते हैं । यदि बाल तपस्या आदि के प्रभाव से वे देवता हों तो भी असुर सम्बन्धी दिशा को ही जाते हैं अर्थात् वे दूसरों के दास भूत अधम किल्बिषी देवता होते हैं ॥९॥ - ण य संखयमाहु जीवितं, तहवि य बालजणो पगब्भई । पच्चुप्पन्त्रेण कारियं को दहं परलोयमागते? , छाया - न च संस्कार्य्यमाहुर्जीवितं तथापि च बालजनः प्रगल्भते । प्रत्युत्पलेन कार्य्यं को दृष्ट्वा परलोकमागतः ॥ 118011 व्याकरण (ण, य) अव्यय ( जीवितं ) कर्म ( संखयं) जीवित का विशेषण (आहु) क्रिया ( तहवि य) अव्यय ( बालजणो ) कर्ता (पगब्मई) क्रिया (पचुप्पन्त्रेण) अभेद तृतीयान्त (कारियं) अध्याहृत अस्मि क्रिया का कर्ता (को) कर्ता (दहूं) पूर्वकालिक क्रिया (परलोयं) कर्म ( आगते) कर्ता का विशेषण । अन्वयार्थ - ( जीवितं ) जीवन को ( संखयं) संस्कार करने योग्य ( ण य आहु) सर्वज्ञों ने नहीं कहा है (तहवि य) तो भी (बालजणो ) मूर्ख जन (पगमई) पाप करने में धृष्टता करते हैं। वे कहते है कि ( पच्चुप्पन्त्रेण कारियं) मुझ को तो वर्तमान सुख से प्रयोजन है (परलोयं) परलोक को (द) देखकर (को आगते) कौन आया है । में भावार्थ - सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है कि - "यह जीवन संस्कार करने योग्य नहीं है" तथापि मूर्ख जीव पाप करने धृष्टता करते हैं। वे कहते हैं कि हम को वर्तमान सुख से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कौन आया है ? । टीका - न च नैव त्रुटितं जीवितमायुः संस्कत्तुं संधातुं शक्यते एवमाहुः सर्वज्ञाः तथाहि "" दंडकलियं करिता वच्चंति हु राइओ य दिवसा य । आउं संवेल्लंता गता य ण पुणो नियत्तंति ||१|| तथापि एवमपि व्यवस्थिते जीवानामायुषि बालजनो अज्ञो लोको निर्विवेकतया असदनुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वन् प्रगल्भते धृष्टतां याति असदनुष्ठानेनाऽपि न लज्जत इत्यर्थः, स चाज्ञो जनः पापानि कर्माणि कुर्वन् परेण चोदितो धृष्टतया अलीकपाण्डित्याभिमानेनेदमुत्तरमाह - प्रत्युत्पन्नेन वर्तमानकालभाविना परमार्थसता अतीतानागतयोर्विनष्टा 1. दण्डकलितं कुर्वत्यो व्रजन्ति रात्रयश्च दिवसाथ । आयुः संवेलयन्त्यः गताश्च पुनर्न निवर्त्तन्ते ||१|| - १६७
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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