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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशः गाथा ३१ मानपरित्यागाधिकारः ( न पुन:) अर्थात् खद्योत की ज्योति और बिजली के प्रकाश के समान अति चञ्चल मनुष्य भव, यदि अगाध संसार सागर में गिर गया तो उसे फिर प्राप्त करना अति दुर्लभ है । अतः युग समिल आदि के दृष्टांत में कही हुई नीति के अनुसार प्रथम तो मनुष्य भव की प्राप्ति ही कठिन है, उस पर भी आर्य्यक्षेत्र पाना अति दुर्लभ है, इसलिए दुःख से आत्महित की प्राप्ति होती है, यह मानना पड़ता है । तथा प्राणियों में जंगम प्राणी श्रेष्ठ हैं और जंगम प्राणियों में पंचेन्द्रिय प्राणी उत्कृष्ट हैं। उनसे भी मनुष्य भव विशिष्ट है । मनुष्य भव में भी आर्य्य देश पाना उत्तम है । आर्य्य देश में भी कुल प्रधान है और कुल में भी जाति उत्कृष्ट है । जाति में भी रूप और समृद्धि पाना कठिन है और उनमें भी बल पाना विशिष्ट है । बल पाकर आयु पाना उत्तम है और आयु से भी विज्ञान पाना प्रधान है। विज्ञान में भी सम्यक्त्व की प्राप्ति होना उत्तम है, उस पर भी शील की प्राप्ति उत्तम है । क्रमशः इन्हीं पदार्थों को प्राप्त करना संक्षेप से मोक्ष साधन का उपाय है । इनमें आप लोगों ने बहुत सा प्राप्त कर लिया है अब थोड़ा ही प्राप्त करना शेष रहा है। अतः मेरे बताये हुए मार्ग में समाधि लगाकर प्रयत्न कीजिए क्योंकि अनार्यों का संग छोड़कर सज्जनों को सदा कल्याण का आचरण करना चाहिए ||३०|| एतच्च प्राणिभिः न कदाचिदवाप्तपूर्वमित्येतद्दर्शयितुमाह प्राणियों ने इस सामायिक आदि को पहले कभी नहीं प्राप्त किया है, यह दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं ण हि णून पुरा 2 अणुस्सुतं, अदुवा तं तह णो समुट्ठियं । मुणिणा सामाइ आहियं, 'नाएणं जगसव्वदंसिणा ॥३१॥ छाया - नहि नूनं पुराऽनुश्रुतमथवा तत्तथा नो समनुष्ठितम् । मुनिना सामायिकाद्याख्यातम्, ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना || व्याकरण - (ण, हि) अव्यय (पुरा) अव्यय (अणुस्सुतं) क्तान्त कर्मवाच्य (अदुवा) अव्यय ( तह) अव्यय ( अणुट्ठियं) क्तान्त कर्मवाच्य ( जगसव्वदंसिणा, नाएणं) मुनि का विशेषण (मुणिणा) कर्ता (सामाइ ) उक्त कर्म (आहियं) क्तान्त कर्मवाच्य । अन्वायर्थ - ( जगसव्वदंसिणा ) समस्त जगत् को देखनेवाले ( मुणिणा) मुनि (नाएण) ज्ञातपुत्र ने ( सामाइ आहियं) सामायिक आदि कहा है (ण) निश्चय जीव ने (पुरा) पहले (ण हि अणुस्सुतं) नहीं सुना है (अदुवा) अथवा (तं) उसे (तह) उस प्रकार ( णो समुट्ठियं) अनुष्ठान नहीं किया है । भावार्थ - समस्त जगत् को जाननेवाले ज्ञातपुत्र मुनि श्रीभगवान वर्धमान स्वामी ने सामायिक आदि का कथन किया है । निश्चय जीव ने उसे सुना नहीं है अथवा सुनकर यथार्थ रूप से उसका आचरण नहीं किया है । टीका - यदेतत् मुनिना जगतः सर्वभावदर्शिना ज्ञातपुत्रीयेण सामायिकादि आहितम् आख्यातं, तन्नूनं निश्चितं नहि नैव पुरा पूर्वं जन्तुभिः अनुश्रुतं श्रवणपथमायातम् अथवा श्रुतमपि तत्सामायकादि यथाऽवस्थितं तथा नाऽनुष्ठितं, पाठान्तरं वा ‘अवितह’त्ति, अवितथं यथावन्नानुष्ठितमतः कारणादसुमतामात्महितं सुदुर्लभमिति ||३१|| टीकार्थ जगत् . के समस्त भावों को देखनेवाले ज्ञातपुत्र मुनि श्री भगवान् वर्धमान स्वामी ने जो सामायिक आदि कहा है, निश्चय से प्राणियों ने उसे पहले कभी नहीं सुना है अथवा सुनकर भी जिस तरह उसका आचरण करना चाहिए वैसा आचरण नहीं किया है । यहाँ पाठान्तर भी पाया जाता है "अवितहं" अर्थात् उस सामायिक I 1. “शम्या पूर्वपयोनिधौ निपतिता, भ्रष्टं युगं पश्चिमाम्भोधौ दुर्धरवीचिभिम सुचिरात्संयोजितं तद् द्वयम् ।। सा शम्या प्रविशेद्युगस्य विवरे तस्य स्वयं क्वाऽपि चेत् । भ्रष्टो मर्त्यभवात् तथाप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ||" अर्थात् पूर्व समुद्र में किल्ली को फेंक दीजिए और पश्चिम समुद्र में जुए को डाल दीजिए वे दोनों समुद्र के प्रबल तरंग से बहकर कदाचित् इकट्ठे हों और वह किल्ली उस जुवें में प्रवेश करे यह संभव है परंतु जिसने पुण्य नहीं किया है उस पुरुष के द्वारा भ्रष्ट मनुष्य भव को फिर प्राप्त करना संभव नहीं है, यही युगसमिल का दृष्टान्त है । 2. मऽणुस्सुतं चू. । 3. अदुवाऽवितथं णो अधिट्ठितं चू. । 4. सामाइगं पदं चू. । 5. णातएण चू. । १५८
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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