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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकेः गाथा १४-१५ मानपरित्यागाधिकारः कपाट लगाकर बंद न करे तथा उसके कपाट को न हिलावे । एवं उसका कपाट यदि बन्द हो तो उसे न खोले। वहाँ तथा अन्यत्र स्थित हुए साधु से यदि कोई धर्म आदि अथवा मार्ग पूछे तो वह सावध वचन न बोले । अथवा अभिग्रह धारी जिनकल्पी आदि साधु निरवद्य वचन भी न बोले । तथा वह साधु उस मकान के तृण और कचरा आदि को प्रमार्जित कर के दूर न करे । एवं कोई आभिग्रहिक साधु अपने शयन के निमित्त तृण की भी शय्या न बिछावे, फिर कम्बल आदि की तो बात ही क्या है ? | तथा दूसरा साधु भी पोला तण की शय्या न बिछावे||१३|| - तथा - - और भी - जत्थऽत्थमिए अणाउले समविसमाई मुणीऽहियासए । चरगा अदुवा वि भेरवा अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥१४॥ छाया-यत्रास्तमितोऽनाकुलः समविषमाणि मुनिरधिसहेत । चरका अथवाऽपि भैरवाः अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः ॥ ___ व्याकरण - (जत्थ) अव्यय (अत्थमिए) मुनि का विशेषण (अणाउले) मुनि का विशेषण (मुणी) कर्ता (समविसमाई) कर्म (अहियासए) क्रिया (चरगा, भेरवा, सरीसिवा) कर्ता (अदुवा) अव्यय (तत्थ) अव्यय (सिया) क्रिया । अन्वयार्थ - (मुणी) मुनिराज (जत्थ) जहाँ (अत्थमिए) सूर्य अस्त हों वहाँ (अणाउले) क्षोभ रहित होकर रह जाय (समविसमाई) तथा अनुकूल और प्रतिकूल आसन शयन आदि को (अहियासए) सहन करे (चरगा) वहाँ यदि मच्छर (अदुवावि) अथवा भयानक प्राणी (सरीसिवा) अथवा सर्प आदि हों तो भी वह वहीं रहे। भावार्थ- चारित्री पुरुष, जहाँ सूर्य अस्त हों, वहीं क्षोभ रहित होकर निवास करें। वह स्थान, आसन और शयन के अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो उसको वह सहन करे । उस स्थान पर यदि दंशक मशक आदि हों अथवा भयंकर प्राणी हों अथवा साँप आदि हों तो भी वहीं निवास करे । __टीका - भिक्षुर्यत्रैवास्तमुपैति सविता तत्रैव कायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः तथाऽनाकुलः समुद्रवनक्रादिभिः परीषहोपसर्गरक्षुभ्यन् समविषमाणि शयनासनादीन्यनुकूलप्रतिकूलानि, मुनिः यथावस्थितसंसारस्वभाववेत्ता सम्यग् अरक्तद्विष्टतयाऽधिसहेत, तत्र च शून्य गृहादौ व्यवस्थितस्य तस्य चरन्तीति चरकाः दंशमशकादयः अथवाऽपि भैरवाः भयानकाः-रक्षःशिवादयः अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः भवेयुः, तत्कृतांश्च परीषहान् सम्यगधिषहेतेति ॥१४॥ टीकार्थ - साधु पुरुष, जहाँ सूर्य अस्त हों, उसी स्थान पर कायोत्सर्ग आदि करके निवास करते हैं, इसलिए कहते हैं कि जहाँ सूर्य अस्त हो, उसी स्थान पर साधु, जैसे समुद्र, नक्र आदि से क्षोभ को प्राप्त नहीं होता है, उसी तरह परीषह और उपसर्गों से आकुल न होता हुआ निवास करे । वहाँ आसन और शयन आदि प्रतिकूल हो अथवा अनुकूल हो, संसार के यथार्थ स्वरूप को जाननेवाला मुनि राग-द्वेष रहित होकर उसको सहन करे । उस शन्य गृह आदि स्थानों में निवास किये हए मनि को यदि दंशक, मशक आदि अथवा भयंकर राक्षस और शृगाल आदि तथा सर्प आदि प्राणियों के द्वारा परीषह उत्पन्न हो तो उसे वह अच्छी तरह सहन करे ॥१४॥ - साम्प्रतं त्रिविधोपसर्गाधिसहनमधिकृत्याह - - साधु को तीन प्रकार का उपसर्ग सहन करना चाहिए इस विषय को लेकर सूत्रकार अब यह कहते हैंतिरिया मणुया य दिव्वगा, उवसग्गा तिविहाऽहियासिया । लोमादीयं ण हारिसे, सुन्नागारगओ महामुणी ॥१५॥ __ छाया - तेरश्चान् मानुषाँश्च दिव्यगान् उपसर्गान् त्रिविधानथिसहेत । 1. मणुसा य दिब्बिया चू. । 2. तिविहा वि सेविया चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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