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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा ३ मानपरित्यागाधिकारः टीकार्थ - जो अविवेकी पुरुष दूसरे पुरुष का तिरस्कार करता है, वह, तिरस्कार से उत्पन्न कर्म के प्रभाव से अत्यन्त रूप से अथवा चिर कालतक चतुर्गतिक संसार में अरहट की तरह भ्रमण करता है। कहीं-कहीं (चिरम्) यह पाठ मिलता है । 'अथ' शब्द निपात है । निपातों के अर्थ अनेक होते है, इसलिए वह (अतः) शब्द के अर्थ में आया है। दूसरे का तिरस्कार करने से आत्यन्तिक संसार भ्रमण होता है, इसलिए परनिन्दा पापयुक्त यानी दोषपूर्ण है । अथवा परनिन्दा अपने स्थान से अधम स्थान में जीव को गिरा देती है, यहाँ 'तु' शब्द एवकारार्थक है, इसलिए परनिन्दा पाप को ही उत्पन्न करती है, यह अर्थ है । परनिन्दा पाप को उत्पन्न करती है, इस विषय में इसलोक में सुअर दृष्टान्त है और परलोक में पुरोहित कुत्ते की योनि में उत्पन्न होता है, यह दृष्टान्त है । परनिन्दा पाप का कारण है, यह जानकर मुनि को यह मान न करना चाहिए कि 'मैं विशिष्ट कुल में उत्पन्न, शास्त्रज्ञ तथा तपस्वी हूँ' तथा 'मेरे से हीन हैं' ॥२॥ - मदाभावे च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह - - मद के अभाव में जो कर्तव्य है वे बताते है - जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसए सिया । जे मोणपयं उवट्ठिए, णो लज्जे समयं सया चरे ॥३॥ छाया-यश्चाप्यनायकः स्याद् योऽपि च प्रेष्यप्रेष्यः स्यात् । यो मौनपदमुपस्थितो नो लज्जेत समतां सदा चरेत् ॥ व्याकरण - (जे) कर्ता, सर्वनाम (य, अवि) अव्यय (अणायगे) कर्ता का विशेषण (सिया) क्रिया (जे) कर्तृवाचक सर्वनाम (पसगपेसए) कर्ता का विशेषण (सिया) क्रिया (जे) कर्तृवाचक (मोणपर्य) कर्म (उवट्ठिए) कर्ता का विशेषण (णो) अव्यय (लज्जे) क्रिया (समय) कर्म (सया) अव्यय (चरे) क्रिया । अन्वयार्थ - (जे यावि) जो कोई (अणायगे) नायक रहित स्वयंप्रभु चक्रवर्ती आदि हैं तथा (जे विय) जो (पेसगपेसए सिया) दास के भी दास हैं (जे) जो (मोणपयं) मौन पद यानी संयममार्ग में (उवट्ठिए) उपस्थित हैं (णो लज्जे) उन्हें लज्जा नहीं करनी चाहिए, किन्तु (सया) सदा (समयं चरे) समभाव से व्यवहार करना चाहिए । भावार्थ - जो स्वयंप्रभु चक्रवर्ती आदि हैं तथा जो दास के भी दास हैं, उन्हें संयम मार्ग में आकर लज्जा छोड़कर समभाव से व्यवहार करना चाहिए । टीका - यश्चापि कश्चिदास्तां तावद् अन्यो न विद्यते नायकोऽस्येत्यनायकः- स्वयंप्रभुश्चक्रवर्त्यादिः 'स्यात्' भवेत्, यश्चापि प्रेष्यस्यापि प्रेष्यः- तस्यैव राज्ञः कर्मकरस्यापि कर्मकरः, य एवम्भूतो मौनीन्द्रं पद्यते-गम्यते मोक्षो येन तत्पदं-संयमस्तम् उप-सामीप्येन स्थितः उपस्थितः-समाश्रितः सोऽप्यलज्जमान उत्कर्षमकुर्वन् वा सर्वाः क्रिया:परस्परतो वन्दनप्रतिवन्दनादिकाः विधत्ते, इदमुक्तं भवति-चक्रवर्तिनाऽपि मौनीन्द्रपदमुपस्थितेन पूर्वमात्मप्रेष्यप्रेष्यमपि वन्दमानेन लज्जा न विधेया इतरेण चोत्कर्ष, इत्येवं 'समता' समभावं सदा भिक्षुश्चरेत्-संयमोद्युक्तो भवेदिति ॥३॥ टीकार्थ - दूसरे पुरुषों की तो बात ही क्या करें ? जो पुरुष नायकवर्जित स्वयंप्रभु चक्रवर्ती आदि हैं तथा जो दास के भी दास हैं अर्थात उसी राजा के कर्मचारी का भी नौकर हैं, ऐसे होकर जिसने मोक्षप्रद मौनीन्द्र पद यानी संयम का आश्रय लिया है उन्हें, लज्जा छोड़कर अपने उत्कर्ष का मान न रखते हुए परस्पर वन्दन नमस्कार आदि समस्त क्रियाओं को करना चाहिए । आशय यह है कि- चाहे चक्रवर्ती भी क्यों न हो परन्तु संयम लेने के पश्चात् अपने गृहस्थावस्था के पूर्वदीक्षित दास के दास को भी वन्दन नमस्कार करने में लज्जा नहीं करनी चाहिए । तथा दूसरे किसी से भी मान नहीं करना चाहिए किन्तु सदा समभाव का आश्रय लेकर साधु को संयम में तत्पर रहना चाहिए।॥३॥ - क्व पुनर्व्यवस्थितेन लज्जामदौ न विधेयाविति दर्शयितुमाह - ३५
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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