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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ११ हिताहितप्रातिपरिहारवर्णनाधिकारः जो मनुष्य संसार में अथवा मनुष्य भव में आसक्त है तथा विषय भोग में मूर्छित और हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं है, वे मोह को प्राप्त होते हैं। टीका - 'पुरिसो' इत्यादि, हे पुरुष ! येन पापेन कर्मणाऽसदनुष्ठानरूपेण त्वमुपलक्षितस्तत्राऽसकृत्प्रवृत्तत्वात् तस्मादुपरम निवर्तस्व । यतः पुरुषाणां जीवितं सुबहपि त्रिपल्योपमान्तं संयमजीवितं वा पल्योपमस्यान्तः- मध्ये वर्तते तदप्यूनां पूर्वकोटिमिति यावत् । अथवा परि समन्तादन्तोऽस्येति पर्यन्तं सान्तमित्यर्थः यच्चैवं तद्गतमेवावगन्तव्यम् । तदेवं मनुष्याणां स्तोकं जीवितमवगम्य यावत्तन्न पर्येति तावद्धर्मानुष्ठानेन सफलं कर्त्तव्यं, ये पुनर्भोगस्नेह-पङ्केऽवसन्ना मग्ना 'इह' मनुष्यभवे संसारे वा कामेषु इच्छामदनरूपेषु मूर्च्छिता अध्युपपन्ना ते नराः मोहं यान्ति-हिताहितप्राप्तिपरिहारे मुह्यन्ति, मोहनीयं वा कर्म चिन्वन्तीति संभाव्यते, एतदसंवृतानां हिंसास्थानेभ्योऽनिवृत्तानामसंयतेन्द्रियाणां चेति ॥१०॥ टीकार्थ - हे पुरुष ! तूं निरन्तर असत् अनुष्ठान में प्रवृत्त रहते हुए जिस पाप कर्म से युक्त है, उससे निवृत्त हो जा, क्योंकि पुरुषों का जीवन बहुत हो तो भी त्रिपल्योपम पर्यन्त ही होता है । अथवा पुरुषों का संयम जीवन पल्योपम के मध्य में ही होता है, वह भी ऊन (आठ वर्ष कम) पूर्व कोटि पर्यन्त ही होता है । अथवा पुरुषों का जीवन नाशवान् है। जो नाशवान् है, उसे गत ही समझना चाहिए। अतः मनुष्यों के जीवन को अल्प जानकर जब-तक वह समाप्त नहीं होता है, तब-तक धर्मानुष्ठान के द्वारा उस जीवन को सफल करना चाहिए। परन्तु जो पुरुष इस मनुष्य भव को पाकर अथवा इस संसार में आकर विषयभोग रूपी कीचड़ में फंसे हए हैं तथा इच्छा, मदन रूप काम में आसक्त हैं, वे मोह को प्राप्त होते है, उनको अपने हित को पाने और अहित के परिहार का ज्ञान प्राप्त नहीं होता है । अथवा वे पुरुष मोहनीय कर्म का सञ्चय करते हैं । जो पुरुष हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं है और इन्द्रियलम्पट हैं, वे भी मोहनीय कर्म का संचय करते हैं ॥१०॥ - एवं च स्थिते यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह - - ऐसी स्थिति में पुरुष का जो कर्तव्य है उसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव 'पक्कमे वीरेहि संमं पवेइयं ॥११॥ छाया - यतमानो विहर योगवान्, अणुप्राणाः पन्थानो दुरुत्तराः । अनुशासनमेव प्रक्रामेद्, वीरैः सम्यक् प्रवेदितम् ।। व्याकरण - (जययं, जोगवं) पुरुष के विशेषण हैं (विहराहि) क्रिया मध्यम पुरुष (अणुपाणा, दुरुत्तरा) मार्ग के विशेषण (अणुसासणं) कर्म (एव) अव्यय (पक्कमे) क्रिया (वीरेहिं) कर्तृ तृतीयान्त (संम) क्रिया विशेषण (पवेइयं) क्रिया । अन्वयार्थ - (जययं) हे पुरुष ! तूं यत्न करता हुआ (जोगवं) तथा समिति और गुप्ति से गुप्त होकर (विहराहि) विचर (अणुपाणा) सूक्ष्म प्राणियों से युक्त (पंथा) मार्ग (दुरुत्तरा) उपयोग के विना दुस्तर होता है (अणुसासणमेव) शास्त्रोक्त रीति से ही (पक्कमे) संयम का अनुष्ठान करना चाहिए (वीरेहि) सभी अरिहन्तों ने (संम) सम्यक् प्रकार से (पवेइयं) यही बताया है। भावार्थ - हे परुष! तँ यत्न सहित तथा समिति गप्ति से गप्त होकर विचर, क्योंकि सक्षम प्राणियों से पर्ण मार्ग विना उपयोग के पार नहीं किया जा सकता है। शास्त्र में संयमपालन की जो रीति बतायी है, उसके अनुसार ही संयम का पालन करना चाहिए, यही सब तीर्थकरों ने आदेश दिया है। टीका - स्वल्पं जीवितमवगम्य विषयांश्च क्लेशप्रायानवबुद्धय छित्त्वा गृहपाशबन्धनं यतमानः यत्नं कुर्वन् प्राणिनामनुपरोधेन विहर उद्युक्तविहारी भव । एतदेव दर्शयति - योगवानिति संयमयोगवान् गुप्तिसमितिगुप्त इत्यर्थः। किमित्येवं, यतः अणवः सूक्ष्माः प्राणाः प्राणिनो येषु पथिषु ते तथा ते चैवंभूताः पन्थानोऽनुपयुक्तैर्जीवानुपमर्दैन दुस्तराः 1. परक्कमे चू. । १२३
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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