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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वितीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः प्रस्तावना वेयालियशब्दार्थवर्णनाधिकारः अथ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्रस्य द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः प्रारभ्यते उक्तं समयाख्यं प्रथममध्ययनं, साम्प्रतं वैतालीयाख्यं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः- इहानन्तराध्ययने स्वसमयगुणाः परसमयदोषाश्च प्रतिपादिताः तांश्च ज्ञात्वा यथा कर्म विदार्यते तथा बोधो विधेय इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्य्यनुयोगद्वाराणि भणनीयानि, तत्राप्युपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो द्वेधा अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारः प्रागेव नियुक्ति-कारेणाभाणि 'णाऊण बुज्झणा चेवेत्यनेन गाथाद्वितीयपादेनेति, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वत एव नियुक्तिकार उत्तरत्र वक्ष्यति, नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकृदाह समय नामक प्रथम अध्ययन कहा जा चुका, अब वैतालीय नामक दूसरा अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है। इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ सम्बन्ध यह है- पूर्व अध्ययन में अपने समय (सिद्धान्त) के गुण और पर समय (सिद्धान्त) के दोष कहे गये हैं, उन्हें जानकर जिस तरह, कर्म का नाश किया जा सकता है, वैसा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, यह उपदेश देने के लिए इस दुसरे अध्ययन का जन्म हुआ है। इस अध्ययन के उपक्रम आदि चार अनुयोग द्वार कहने चाहिए । उनमें उपक्रम में अर्थाधिकार दो है, एक अध्यनार्थाधिकार अर्थात् सम्पूर्ण अध्ययन में कहा जानेवाला विषय और दूसरा उद्देशार्थाधिकार अर्थात् इस अध्ययन के उद्देशकों में कहा जानेवाला विषय । इनमें "णाउण बुज्झणा चेव" इस गाथा के द्वितीय पाद के द्वारा अध्ययनार्थाधिकार को पहले ही नियुक्तिकार ने बतला दिया है और उद्देशार्थाधिकार भी आगे चलकर स्वयमेव नियुक्तिकार बतलावेंगे, अब नियुक्तिकार नामनिक्षेप के विषय में कहते हैं। येयालियंमि येयालगो य येयालणं वियालणियं । तिन्निवि चउक्कगाइं वियालओ एत्थ पुण जीयो ॥३६॥ नि० टीका - तत्र प्राकृतशैल्या वेयालियमिति 'दृ विदारणे' इत्यस्य धातोर्वि पूर्वकस्य छान्दसत्वात् भावे ण्वुलप्रत्ययान्तस्य विदारकमिति क्रियावाचकमिदमध्ययनाभिधानमिति, सर्वत्र च क्रियायामेतत् त्रयं सन्निहितं तद्यथा कर्ता, करणं, कर्म चेति, अतस्तद्दर्शयति-विदारको, विदारणं, विदारणीयं च । तेषां त्रयाणामपि नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्की निक्षेपेण त्रीणि चतुष्ककानि द्रष्टव्यानि । अत्र च नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यविदारको यो हि द्रव्यं काष्ठादि विदारयति, भावविदारकस्तु कर्मणो विदार्य्यत्वात् नोआगमतो जीवविशेषः साधुरिति ॥३६॥ विपूर्वक 'दृ विदारणे' इस धातु से छान्दसत्वात् भाव में ण्वुल् प्रत्यय करके 'विदारकम्' यह पद बना है, यह पद क्रियावाचक है और यही इस अध्ययन का नाम है परन्तु प्राकृत की शैली से इसको 'वेयालिय' कहते हैं । जहाँ क्रिया होती है, वहाँ ये तीन अवश्य रहते हैं, कर्ता, करण और कर्म । अतः नियुक्तिकार इन्हें दिखलाते हैं । यहाँ विदारण करनेवाला और विदारण का साधन तथा विदारण करने योग्य पदार्थ भी अवश्य हैं, इन तीनों का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भेद से चार प्रकार का निक्षेप करने पर तीन चतुष्क (चौक) होते हैं। इनमें नाम और स्थापना बार-बार कहे गये हैं, अतः उन्हें छोड़कर द्रव्यविदारक कहा जाता है । जो काष्ठ आदि द्रव्यों को विदारण करता है। वह द्रव्य विदारक है और जो कर्म को विदारण करता है वह भाव विदारक है। भाव विदारक नोआगम से जीवविशेष है और वह जीव विशेष साधु है ॥३६॥ करणमधिकृत्याह - दव्यं च परसुमादी, दंसणणाणतयसंजमा भाये । दव्यं च दारुगादी भावे कम्मं वियालणियं ॥३७॥ नि. नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यविदारणं परश्वादि, भावविदारणं तु दर्शनज्ञानतपःसंयमाः, तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्यमित्युक्तं भवति, विदारणीयं तु नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यं दादि भावे पुनरष्टप्रकारं कर्मेति ॥३७॥ साम्प्रतं 'वेतालिय'मित्येतस्य निरुक्तं दर्शयितुमाह - 1. "उपायपूर्वक आरम्भ उपक्रमः" उपाय पूर्वक आरम्भ करने का नाम उपक्रम है। ११२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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