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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ७ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः है । यह लोक द्वयणुक आदि कार्य्यद्रव्य की अपेक्षा से यद्यपि शाश्वत नहीं है तथापि इसका कारण द्रव्य कदापि परमाणुत्व को नहीं छोड़ता है, इसलिए यह शाश्वत है । यह लोक कभी नष्ट नहीं होता है, यह बात, दिशा आत्मा और आकाश आदि की अपेक्षा से कही गयी है । जिसका अन्त यानी सीमा होती है, उसे अन्तवान् कहते हैं । यह लोक अन्तवान् है क्योंकि पृथिवी सात द्वीप वाली है, ऐसा पौराणिकों ने इसका परिमाण बतलाया है। इस प्रकार का परिमाणवाला यह लोक नित्य है, इस प्रकार पदार्थों का मिथ्या स्वरूप बताने के कारण व्यास आदि के समान कोई धीर अर्थात् साहसिक पुरुष अति देखता है । इस प्रकार के अनेक लोकवादों को सुनना चाहिए, यह प्रकृत गाथा के साथ सम्बन्ध करना चाहिए । तथा पुत्र रहित पुरुष के लिए कोई लोक नहीं, ब्राह्मण देवता हैं। कुत्ते यक्ष हैं, गाय के द्वारा मारे हुए पुरुष को तथा गाय मारनेवाले को कोई लोक नहीं मिलता है, इत्यादि युक्ति रहित लोकवाद सुनना चाहिए (यह कोई कहते हैं) ॥६॥ 1अपरिमाणं वियाणाई, इहमेगेसिमाहियं । सव्वत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासई ॥७॥ छाया - अपरिमाणं विनानाति, इहेकेषामाख्यातम् । सर्वत्र सपरिमाणमिति धीरोऽतिपश्यति ॥ व्याकरण - (अपरिमाणं) कर्म (वियाणाई) क्रिया (इह) अव्यय (एगेसिं) कर्तृवाचक षष्ठ्यन्त (आहियं) क्रिया (सव्वत्थ) अव्यय (सपरिमाणं) कर्म (इति) अव्यय (धीरो) कर्ता (अतिपासई) क्रिया । अन्वयार्थ - (अपरिमाणं) परिमाण रहित अर्थात् अपरिमित पदार्थ को (वियाणाई) जानता है। (इह) इस लोक में (एगेसिं) किन्हीं का (आहियं) कहना है । (सव्वत्थ) सर्वत्र (सपरिमाणं) परिमाण सहित जानता है (इति) यह (धीरो) धीर पुरुष (अतिपासई) अत्यन्तर देखता है। भावार्थ - किसी की मान्यता है कि अतीन्द्रिय पदार्थों को जाननेवाला पुरुष अवश्य है परन्तु सब पदार्थों का ज्ञाता सर्वज्ञ पुरुष नहीं है । परिमित पदार्थों को जाननेवाला ही पुरुष है, यह धीर पुरुष अति देखते हैं। टीका - न विद्यते परिमाणम् इयत्ता क्षेत्रतः कालतो वा यस्य तदपरिमाणं, तदेवम्भूतं विजानाति कश्चित्तीर्थिकतीर्थकृत्, एतदुक्तम्भवति अपरिमितज्ञोऽसावतीन्द्रियद्रष्टा, न पुनः सर्वज्ञ इति, यदि वा- अपरिमितज्ञ इत्यभिप्रेतार्थातीन्द्रियदर्शीति, तथा चोक्तम् - "सर्वं पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते ||१||" इति 'इह' अस्मिंल्लोके एकेषां सर्वज्ञापह्नववादिनाम् इदमाख्यातम् अयमभ्युपगमः, तथा सर्वक्षेत्रमाश्रित्य कालं वा परिच्छेद्यं कर्मतापनमाश्रित्य सह परिमाणेन सपरिमाणं-सपरिच्छेदं धी:-बुद्धिः तया राजत इति धीर इत्येवमसौ अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति, तथाहि-ते ब्रुवते दिव्यं वर्षसहस्रमसौ ब्रह्मा स्वपिति, तस्यामवस्थायां न पश्यत्यसौ, तावन्मात्रं च कालं जागर्ति, तत्र च पश्यत्यसाविति, तदेवम्भूतो बहुधा लोकवादः प्रवृत्तः ॥७॥ टीकार्थ - क्षेत्र या काल से जिसकी सीमा नहीं है, उसे अपरिमाण कहते हैं । अन्यतीर्थी का ईश्वर उस अपरिमाण यानी सीमातीत पदार्थ को देखता है । आशय यह है कि अन्यतीर्थी का ईश्वर अतीन्द्रिय अर्थ को देखनेवाला होकर भी परिमित पदार्थ को ही देखता है परन्तु सर्वज्ञ नहीं है अथवा अन्यतीर्थी का ईश्वर अपरिमितज्ञानी होकर भी जो अतीन्द्रिय अर्थ मोक्षादि के उपयोगी हैं, उन्हीं को देखता है। समस्त पदार्थों को नहीं देखता है, यह अन्यतीर्थी का कथन है । जैसा कि वे कहते हैं - (सर्व पश्यतु वा) अर्थात् ईश्वर सब पदार्थों को देखें अथवा न देखें किन्तु इष्ट अर्थ को देखना चाहिए, क्योंकि कीड़ों की संख्या का ज्ञान हमारे किस काम में आ सकता है ? यह सर्वज्ञ नहीं माननेवाले अन्यतीर्थियों का मत है। किसी अन्यतीर्थी का मत है कि- धीर पुरुष सब 1. अमितं जाणती वीरे । 2. वीरो चू. । 3. कश्चित्तु पक्षे प्रकृतिभावमपीच्छतीति श्री हेमचन्द्रसूर्युक्तेरत्र प्रकृतिभावसद्भावात्रा प्रयोगता । १०४
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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