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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशके गाथा ३ परिग्रहारम्भत्यागाधिकारः पूर्वकालिक क्रिया (ण) अव्यय (तेसु) अन्यतीर्थी का परामर्शक सर्वनाम अधिकरण (मुच्छए) क्रिया । (अणुक्कसे, अप्पलीणे) मुनि का विशेषण (मज्झेण) करणतृतीयान्त (मुणि) कर्ता (जावए) क्रिया । अन्वयार्थ - (वियं भिक्खू) विद्वान् साधु (तं च ) उन अन्य तीर्थियों को (परिन्नाय) जानकर (तेसु ण मूच्छए) उनमें मूर्च्छा न करे ( मुणि) वस्तुस्वभाव को जाननेवाला मुनि ( अणुक्कसे) किसी प्रकार का मद न करता हुआ (अप्पलीणे) तथा किसी के साथ सम्बन्ध न रखता हुआ (मज्झेण) मध्यस्थवृत्ति से (जावए) व्यवहार करे । भावार्थ - विद्वान् साधु अन्यतीर्थियों को जानकर उनमें मूर्च्छा न करे । तथा किसी तरह का मद न करता हुआ संसर्ग रहित मध्यस्थवृत्ति से रहे । टीका तं पाखण्डिकलोकमसदुपदेशदानाभिरतं 'परिज्ञाय' सम्यगवगम्य यथैते मिथ्यात्वोपहतान्तरात्मानः सद्विवेकशून्याः नात्मने हितायालं नान्यस्मै इत्येवं पर्यालोच्य भावभिक्षुः संयतो 'विद्वान्' विदितवेद्यः तेषु 'न मूर्च्छयेत्' न गार्घ्यं विदध्यात्, न तैः सह संपर्कमपि कुर्यादित्यर्थः । किं पुनः कर्तव्यमिति पश्चार्धेन दर्शयति'अनुत्कर्षवानिति' अष्टमदस्थानानामन्यतमेनाप्युत्सेकमकुर्वन् तथा अप्रलीनः असंबद्धस्तीर्थिकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्थादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् मध्येन रागद्वेषयोरन्तरालेन संचरन् मुनिः जगत्त्रयवेदी यापयेद् आत्मानं वर्तयेत् । इदमुक्तम्भवतितीर्थिकादिभिः सह सत्यपि कथञ्चित्सम्बन्धे त्यक्ताहङ्कारेण तथा भावतस्तेष्वप्रलीयमानेनारक्तद्विष्टेन तेषु निन्दामात्मनश्च प्रशंसां परिहरता मुनिनाऽऽत्मा यापयितव्य इति ॥२॥ - टीकार्थ - पाखण्डी लोग असत् उपदेश देने में रत हैं, यह अच्छी तरह जानकर तथा ये पूर्वोक्त मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व से मलिन चित्त और सद्विवेक से रहित हैं, अतः ये लोग अपना तथा दूसरे का कल्याण करने में समर्थ नहीं हैं । यह जानकर विद्वान्, संयमी, वस्तुस्वरूप के ज्ञाता, भावभिक्षु उन अन्यतीर्थियों में मूर्च्छा न करें । उनके साथ सम्पर्क भी न करें यह अर्थ है । उनके साथ मुनि, क्या करें यह इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा बतलाते हैं । तीन लोक को जाननेवाला मुनि, आठ प्रकार के मदस्थानों में से किसी प्रकार का भी मद न करता हुआ एवं परतीर्थी, गृहस्थ अथवा पार्श्वस्थ आदि के साथ सम्बन्ध न करता हुआ मध्यवृत्ति से अर्थात् राग-द्वेष रहित होकर व्यवहार करें । भाव यह है कि परतीर्थी आदि के साथ यदि कथञ्चित् सम्बन्ध हो जाय तो साधु अहङ्कार छोड़कर तथा भाव से उनके साथ सम्बन्ध न रखता हुआ एवं राग-द्वेष रहित और आत्मप्रशंसा और उनकी निन्दा न करता हुआ अपना काल व्यतीत करे ॥२॥ किमिति ते तीर्थिकास्त्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाह - परतीर्थी अपनी तथा दूसरे की रक्षा क्यों नहीं कर सकते हैं ? यह दिखलाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं । सपरिग्गहा य सारंभा, इहमेगेसिमाहियं । अपरिग्गहा अणारंभा, भिक्खू 'ताणं परिव्वए ॥३॥ छाया - सपरिग्रहाश्च सारम्भा इहैकेषामाख्यातम् । अपरिग्रहाननारम्भान् भिक्षु स्त्राणं परिव्रजेत् ॥ व्याकरण - ( सपरिग्गहा, सारंभा ) प्राप्ति क्रिया का कर्ता (य) अव्यय (इह) अव्यय (एगेसिं) कथन क्रिया का कर्ता (आहियं) क्रिया ( अपरिग्गहा, अणारंभा) कर्म (भिक्खू) कर्ता (ताणं) कर्म विशेषण (परिव्वए) क्रिया । अन्वयार्थ - ( सपरिग्गहा) परिग्रह रखनेवाले (य) और (सारंभा) आरंभ करनेवाले जीव, मोक्ष प्राप्त करते हैं यह (इह) मोक्ष के विषय में (एगेसिमाहियं) कोई कहते हैं । (भिक्खू) परन्तु भावभिक्षु (अपरिग्गहा अणारंभा ) परिग्रह और आरंभ वर्जित पुरुष के (ताणं) शरण में (परिव्वए) जावे । भावार्थ - कोई अन्यतीर्थी कहते हैं कि परिग्रह रखने वाले और आरम्भ करनेवाले जीव, मोक्ष प्राप्त करते हैं परन्तु भावभिक्षु परिग्रह रहित और आरम्भवर्जित पुरुष के शरण में जावे । 1. जाणं चू. । ९९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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