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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा १५-१६ परतीर्थिपरित्यागकारणकथनाधिकारः सिद्धिमेव पुरो काउं, 'सासए गढिया नरा ॥१५॥ छाया - सिद्धाश्चतेऽरोगाश्च इहेकेषामाख्यातम् । सिद्धिमेव पुरस्कृत्य, स्वाशये ग्रथिताः नराः ॥ व्याकरण - (सिद्धा) कर्ता (य) अव्यय (ते अरोगा) कर्ता का विशेषण (इह) अव्यय (एगेसिं) कर्तृषष्ठ्यन्त (आहियं) क्रिया (सिद्धिं) कर्म (एव) अव्यय (पुरो काउं) पूर्वकालिक क्रिया (सासए) अधिकरण (गढिया) नर का विशेषण (नरा) कर्ता । अन्वायर्थ - (ते) वे (सिद्धा) सिद्ध पुरुष (अरोगा य) नीरोग होते हैं (इह) इस लोक में (एगेसिं) कोई (आहियं) कहते हैं (सिद्धिमेव पुरो काउं) सिद्धि को ही सामने रखकर (नरा) मनुष्य (सासए) अपने दर्शन में (गढिया) गूंथे हुए हैं। भावार्थ - अन्यदर्शनी कहते हैं कि हमारे दर्शन के अनुष्ठान से सिद्धि को जो प्रास करते हैं, वे नीरोग होते हैं। वे अन्यदर्शनी सिद्धि को आगे रखकर अपने दर्शन में गूंथे हुए हैं। टीका - ये ह्यस्मदुक्तमनुष्ठानं सम्यगनुतिष्ठन्ति तेऽस्मिन् जन्मन्यष्टगुणैश्वर्य्यरूपां सिद्धिमासाद्य पुनर्विशिष्टसमाधियोगेन शरीरत्यागं कृत्वा सिद्धाश्च अशेषद्वन्द्वरहिता अरोगा भवन्ति, अरोगग्रहणं चोपलक्षणम् अनेकशारीरमानसद्वन्द्वैर्न स्पृश्यन्ते, शरीरमनसोरभावादिति । एवम् इह अस्मिन् लोके सिद्धिविचारे वा एकेषां शैवादीनामिदमाख्यातंभाषितं, ते च शैवादयः सिद्धिमेव पुरस्कृत्य मुक्तिमेवाङ्गीकृत्य स्वकीये आशये स्वदर्शनाभ्युपगमे ग्रथिताः संबद्धा अध्युपपन्नास्तदनुकूलाः युक्तीः प्रतिपादयन्ति । नरा इव नराः प्राकृतपुरुषाः शास्त्रावबोधविकलाः स्वाभिप्रेतार्थसाधनाय युक्तीः प्रतिपादयन्ति एवं तेऽपि पण्डितंमन्याः परमार्थमजानानाः स्वाग्रहप्रसाधिकाः युक्तीरुद्घोषयन्तीति, तथा चोक्तम् आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ||१||१५|| टीकार्थ - अन्यदर्शनी कहते हैं कि- जो पुरुष हमारे दर्शन में कहे हुए नियम को अच्छी तरह से अनुष्ठान करते हैं, वे इसी जन्म में आठ प्रकार की ऐश्वर्यवाली सिद्धि को प्राप्त करके फिर विशिष्ट समाधि योग के द्वारा शरीर को छोड़कर सिद्ध हो जाते हैं । अर्थात् वे समस्त द्वन्द्व रहित नीरोग हो जाते हैं । यहाँ अरोग ग्रहण उपलक्षण है, इसलिए वे अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों से स्पर्श नहीं किये जाते हैं, क्योंकि उनके शरीर और मन नहीं होते हैं । इस प्रकार शैव आदि सिद्धि के विषय में बतलाते हैं । वे शैव आदि सिद्धि को ही आगे रखकर अपने दर्शन में आसक्त रहते हुए अपने शास्त्र के अनुकूल युक्तियों का प्रतिपादन करते हैं। जैसे शास्त्रज्ञान रहित साधारण पुरुष, अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए युक्तियों का प्रतिपादन करते हैं, उसी तरह परमार्थ को न जाननेवाले और अपने को पण्डित माननेवाले शैव आदि अपने आग्रह को सिद्ध करने के लिए युक्तियों की घोषणा करते हैं। कहा भी है (आग्रही वतं) अर्थात आग्रही पुरुष, युक्ति को अपनी मान्यता के पास ले जाना चाहता है परन्तु पक्षपात रहित पुरुष, जो अर्थ युक्ति युक्त होता है, उसी को स्वीकार करता है ||१||१५|| - साम्प्रतमेतेषामनर्थप्रदर्शनपुरःसरं दूषणाभिधित्सयाऽऽह - - अब इनका अनर्थ दिखाते हुए शास्त्रकार दूषण बताने के लिए कहते हैं - असंवुडा अणादीयं भमिहिती पुणो पुणो । कप्पकालमुवज्जंति ठाणा आसुरकिब्बिसिया ॥१६॥ त्ति बेमि इति बेमि । इति प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशकः ।। गा.ग्रं. ७५ ।। छाया - असंवृता अनादिकं भ्रमिष्यन्ति पुनः पुनः । कल्पकालमुत्पद्यन्ते स्थाना आसुरकिल्बिषिकाः ॥ इति ब्रवीमि। 1. सासए गढिता चू. ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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