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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशके गाथा ६ परसमयवक्तव्यतायांजगत्कर्तृत्वाधिकारः समस्त जगत्का कर्ता है, वह साधारण पुरुष नहीं हो सकता, अत: वह ईश्वर है ।1 तथा शरीर, भुवन और इन्द्रिय आदि, किसी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा कृत हैं, क्योंकि घट आदि के समान ये कार्य हैं 12 तथा शरीर और इन्द्रिय आदि किसी बद्धिमान कर्ता के द्वारा किये हए हैं, क्योंकि ये बँसला आदि के समान स्थित हो होते हैं। तथा दूसरे वादी अर्थात् साङ्ख्यमतवाले कहते हैं कि- यह लोक प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा किया गया है । सत्त्व, रज और तम की साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं । वह प्रकृति पुरुष यानी आत्मा के भोग और मोक्ष के लिए क्रिया में प्रवृत्त होती है। यहाँ आदि शब्द से यह जानना चाहिए कि- "उस प्रकृति से महान् अर्थात् बुद्धितत्त्व उत्पन्न होता है और बुद्धितत्त्व से अहङ्कार और अहङ्कार से सोलह पदार्थों का गण उत्पन्न होता है। उन गणों में से पांच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं, इस क्रम से यह सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है 14 अथवा यहाँ आदि शब्द से स्वभाव आदि का ग्रहण है। इसलिए इसका यह अर्थ है कि- जैसे कण्टक 1. यहाँ टीकाकार ने ईश्वरकारणवादियों की ओर से ईधर सिद्धि के लिए तीन हेतु बताये हैं। इनमें पहला हेतु यह है कि- पृथ्वी, समुद्र और पर्वत आदि की रचना भिन्न-भिन्न प्रकार की देखी जाती है, इससे प्रतीत होता है कि किसी बुद्धिमान कर्ता ने सोच समझकर भिन्न-भिन्न आकारों में इन्हें बनाया है। जैसे घट, देवकुल और कूप आदि के आकार भिन्न-भिन्न हैं । अतः वे बुद्धिमान् कर्ता द्वारा भिन्न-भिन्न आकार में बनाये गये हैं, इसी तरह पृथिवी, समुद्र और पर्वत आदि यह समस्त जगत् भी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा भिन्न-भिन्न आकारों में उत्पन्न किये गये हैं। इस प्रकार कोई पुरुष विशेष जगत् का कर्ता सिद्ध होता है । वह पुरुष विशेष हम लोगों के समान साधारण पुरुष नहीं हो सकता, क्योंकि साधारण पुरुष को इन वस्तुओं की रचना का ज्ञान संभव नहीं है । अतः इनकी रचना करनेवाला सांसारिक जीवों से विलक्षण कोई पुरुष विशेष अवश्य मानना चाहिए । वह पुरुष ईश्वर हैं। 2. दूसरा हेतु यह है कि पृथ्वी समुद्र और पर्वत आदि कार्य हैं, इसलिए इनका कर्ता कोई अवश्य है, क्योंकि कार्य बिना कर्ता के नहीं हो सकता है। जैसे घट आदि कार्य कुम्हार के बिना नहीं होते । इसी तरह यह पृथिवी, समुद्र और पर्वत आदि कार्य भी किसी कर्ता के बिना नहीं हो सकते हैं । अतः इनका कर्ता कोई अवश्य है । वह कर्ता साधारण पुरुष नहीं हो सकता है इसलिए वह ईश्वर है। यह उन-उन मतवादियों का स्वरूप बताया है। 3. तीसरा हेतु यह है कि जैसे बँसूला अपने आप कोई कार्य नहीं करता है, किन्तु कारीगर जब चाहता है तब उसके द्वारा काम लेता है। इसी तरह पृथिवी, समुद्र और पर्वत आदि अपने आप कोई कार्य नहीं करते, किन्तु मनुष्य आदि प्राणी जब चाहते हैं तब इनसे काम लेते हैं। अतः जैसे बंसूला पराधीन प्रवृत्तिवाला होने के कारण किसी कर्ता द्वारा किया हुआ है। इसी तरह पराधीन प्रवृत्तिवाले होने के कारण पृथिवी आदि भी किसी के किये हुए हैं । जिसने इन्हें किया है, वह ईश्वर है । 4. साङ्ख्यवादी का कहना है कि इस जगत् के मूलकारण सत्व, रज और तम ये तीन गुण हैं । इन्हीं गुणों से यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है । अत एव यह सृष्टि त्रिगुणात्मक कहलाती है । इस जगत् में जितने पदार्थ पाये जाते हैं, सभी में इन तीन गुणों की सत्ता देखी जाती है। दृष्टान्त के लिए जैसे- एक सुन्दर स्त्री है । उस स्त्री में सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण पाये जाते हैं, क्योंकि वह स्त्री अपने पति को सुख उत्पन्न कराती है । सुख उत्पन्न कराना सत्त्वगुण का कार्य है । अतः उस स्त्री में सत्त्वगुण का अस्तित्व पाया जाता है । तथा वह स्त्री अपनी सौत को दुःख उत्पन्न कराती है, इसलिए उसमें रजोगुण का सद्भाव भी है, क्योंकि दुःख उत्पन्न कराना रजोगुण का कार्य है । तथा वह स्त्री कामी पुरुषों को मोह उत्पन्न कराती है, इसलिए उसमें तमोगुण भी विद्यमान हैं, क्योंकि मोह उत्पन्न कराना तमोगुण का कार्य है। इसी तरह संसार के सभी पदार्थ सुख-दुःख तथा मोह उत्पन्न करते हैं। इसलिए सभी पदार्थ सत्त्व, रज और तम इस त्रिगुणात्मक प्रकृति से बने हैं। यह सिद्ध होता है, वह त्रिगुणात्मक प्रकृति सीधे इस विश्व को उत्पन्न नहीं करती है, किन्तु उस प्रकृति से पहले बुद्धितत्त्व उत्पन्न होता है और बुद्धितत्त्व से अहङ्कार उत्पन्न होता है और अहङ्कार से सोलह गण उत्पन्न होते हैं । और सोलह गणों में जो पंचतन्मात्राये हैं, उनसे पृथिव्यादि पंचमहाभूत उत्पन्न होते है । इस क्रम से इस समस्त विश्व को वह प्रकृति उत्पन्न करती है । यह साङ्ख्यवादियों का कथन है- जैसे कि ईश्वर कृष्ण ने सांख्यकारिका में लिखा है कि "मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति विकृतयः सप्त षोडशकस्तुविकारो न प्रकृतिर्नविकृतिः पुरुषः" अर्थात् सत्त्व, रज, तम इन गुणों की साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं । वह प्रकृति किसी से भी उत्पन्न नहीं है, किन्तु नित्य है, इसलिए वह अविकृति है अर्थात् वह किसी भी तत्त्व का विकार नहीं है । तथा महत्, अहङ्कार एवं गन्धतन्मात्रा, रसतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा और शब्दतन्मात्रा ये सात पदार्थ, दूसरे तत्त्वों को उत्पन्न करते हैं । इसलिए प्रकृति भी है और ये स्वयं दूसरे तत्त्वों से उत्पन्न है, इसलिए ये विकृति भी है । तथा पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, मन और पाँच महाभूत ये सोलह तत्त्व किसी दूसरे तत्त्व के उत्पादक नहीं है, इसलिए ये किसी भी तत्त्व के प्रकृति नहीं हैं, बल्कि ये स्वयं दूसरे तत्त्वों से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए ये विकृति है । इन सबों से भिन्न पुरुष तत्त्व न तो किसी की प्रकृति (कारण) है और न किसी की विकृति (कार्य) है। यही ईश्वर कृष्ण की कारिका का अर्थ हैं । इसमें साङ्ख्यसम्मत २५ तत्त्वों का संक्षेप से स्वरूप बतलाया है । और प्रकृति के द्वारा महदादि क्रम से सृष्टि होना स्पष्ट कहा है। यही यहाँ टीकाकार ने संक्षेप से लिखा है । अतः टीकाकार की इस उक्ति में यह कारिका प्रमाण समझनी चाहिए । ८२
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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