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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते प्रथमाध्ययने द्वितीयोद्देशके गाथा २९ परसमयवक्तव्यतायां क्रियावाद्यधिकारः ही मोक्ष का प्रधान कारण एक मन को ही बतलाया है । तथा उक्तवादी ने और भी कहा है __ “चित्तमेव” अर्थात् राग आदि क्लेशों से वासित चित्त ही संसार है और वही चित्त, रागादि रहित होकर संसार का अन्त कहा जाता है । तथा दूसरे दार्शनिको ने भी कहा है कि “मतिविभव" अर्थात हे मन ! मैं, तुझको नमस्कार करता हूँ। यद्यपि सभी पुरुष, समान हैं, परन्तु तूं किसी के शुभ अंश में और किसी के अशुभ अंश में परिणत होते हो । यही कारण है कि कोई पुरुष, नरक रूपी नगर के मार्ग का पथिक होता है और बढ़ी हुई शुभांश की शक्ति से कोई सूर्य का भेदन करता है, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है । इस प्रकार आप के मन्तव्य से ही क्लिष्ट मनोव्यापार, कर्मबन्धन का कारण है, यह सिद्ध होता है । तथा ई-पथ में भी यदि उपयोग न रखकर चलता है, तो उपयोग न रखना ही चित्त की क्लिष्टता है, अतः उससे कर्मबन्ध होता ही है। यदि वह उपयोग रखकर चलता है, तो प्रमाद रहित होने के कारण उसे कर्मबन्ध नहीं होता है । जैसा कि कहा है - ईटा समिति से युक्त पुरुष पृथिवी पर रखने के लिए जब अपने पैर को उठाता है, तब उसके पैर के नीचे आकर यदि कोई सूक्ष्म जीव मर जाय तो उसको थोड़ा भी पाप नहीं होता है, यह सिद्धान्त में कहा है, क्योंकि वह पुरुष सब प्रकार से जीव रक्षा में उपयोग रखने के कारण पाप रहित है । तथा चित्त की अशुद्धि के कारण स्वप्नान्तिक में भी कुछ कर्मबन्ध होता ही है । तथा आपने भी स्वप्नान्तिक में अव्यक्त पाप होता है, इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा यह स्वीकार किया है । इस प्रकार जब कि एक क्लिष्ट चित्त के व्यापार होने पर कर्मबन्ध होता है, तब आपने जो यह कहा है कि- "प्राणी प्राणिज्ञानम्" इत्यादि, यह सब असङ्गत है । तथा आपने यह जो कहा है कि- "पुत्रं पिता समारभ्य" इत्यादि (अर्थात् राग-द्वेष रहित पिता विपत्ति के समय पुत्र का माँस खाकर भी कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं करता है ।") यह कथन भी विचार शून्य है क्योंकि जब तक "मैं मारता हूँ" ऐसा चित्त का परिणाम नहीं होता है तब तक कोई मारता नहीं है और "मैं मारता हूँ' यह चित्त का परिणाम किस प्रकार असंक्लिष्ट हो सकता है ? चित्त की क्लिष्टता से अवश्य कर्मबन्ध होता है, इस विषय में आप और हम दोनों की सम्मति है । (अतः पुत्रघाती पिता को पाप रहित बताना असंगत है।) तथा किसी स्थान पर उक्तवादी ने जो यह कहा है कि- "जैसे दूसरे के हाथ से अङ्गार पकड़ने पर हाथ नहीं जलता है, उसी तरह दूसरे के द्वारा मारे हुए प्राणी के माँस खाने से पाप नहीं होता है" यह भी उन्मत्त के प्रलाप के समान सुनने योग्य नहीं है क्योंकि दूसरे के द्वारा मारे हुए प्राणी के माँस खाने पर भी उसमें अनुमति अवश्य होती है और अनुमति होने पर कर्मबन्ध भी अवश्य है। तथा दूसरे दर्शनवालों ने भी कहा है कि ___ अनुमोदन करनेवाला, पशु के अङ्गों को काट कर अलग अलग करनेवाला, पशु को मारने के लिए उसे वध्य स्थान पर ले जानेवाला, तथा पशु को मारने के लिए उसे खरीदने वाला 5बेचनेवाला तथा पशु का माँस पकानेवाला, 'माँस खानेवाला, और मारनेवाला ये आठ, पशु के घात का पाप करते हैं । तथा उक्तवादियों ने पशु का घात करने और कराने तथा अनुमति देने से जो पाप होना कहा है, यह उन्होंने जैनेन्द्र मत के अंश का आस्वादन किया है। अतः "चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है।" यह कहनेवाले अन्यदर्शनी कर्म की चिन्ता से रहित हैं. यह सिद्ध है ॥२९।। - अधुनैतेषां क्रियावादिनामनर्थपरम्परां दर्शयितुमाह - - अब शास्त्रकार इन क्रियावादियों की अनर्थ परम्परा बताने के लिए कहते हैं - 'इच्चेयाहि य दिट्ठीहि, सातागारवणिस्सिया ।
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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