SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1st INTERNATIONAL JAIN CONFERENCE जैन परम्परा और सिद्धान्तों की वर्तमान शिक्षा में उपादेयता अशोक कुमार सिंह शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है शिक्षा विकास है शिक्षा जीवन के लिए तैयारी नहीं है शिक्षा स्वयं जीवन है। - जान डेवे (Jahn Dewey) राष्ट्र के रूप में हमारी प्रगति शिक्षा में हुई प्रगति से तेज नहीं हो सकती। - जान एफ. केनेडी) जैन परम्परा में शिक्षा का मूल उद्देश्य निःश्रेयस् या मोक्ष की प्राप्ति रहा है। मोक्ष के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों के सम्बन्ध में चिन्तन के विकास के साथ शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। व्यक्ति के जीवन में शिक्षा का महत्त्व एवं उसकी उपादेयता आदि तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा अपनी पुत्रियों ब्राह्मी एवं सुन्दरी को दिये उपदेशों से ज्ञात होती है विद्या मनुष्य को पूर्ण करने वाली कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा कामरूप फल से रहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है। विद्या ही मनुष्य का बन्धु है, मित्र है, कल्याणकारिणी है, विद्या ही साथ ले जाने वाला धन है, और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है। (महापुराण 2/38-43)भगवान् महावीर द्वारा स्वाध्याय को आभ्यन्तर तप में समाहित करना आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं लौकिक दृष्टि से भी शिक्षा के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के बहुश्रुत पूजा नामक ग्यारहवें अध्ययन से शिक्षा के उद्देश्य, विद्यार्थी की आचार संहिता और गुरु की योग्यता के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। (3.11/1-32)। क्षत्रचूड़ामणि जैसे ग्रंथों में 'अनवद्या ही विद्या स्याल्लोकाद्वयफलावहा'- (क्षत्रचूड़ामणिवादीभसिंह 3/45) अर्थात् निर्दोष, सम्यक् रूप से अभ्यस्त विद्या ही ऐहिक और पारलौकिक कार्यों को सफल करती है। दूसरे शब्दों में त्याग-संयम, आचार-विचार और कर्तव्य निष्ठा का बोध शिक्षा द्वारा ही प्राप्त होता है। नन्दीसूत्र में विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता और विषयग्रहण योग्यता तथा शिक्षा ग्रहण के समय अनुकूल एवं प्रतिकूल व्यवहारों का दृष्टान्तों के माध्यम से निर्देश किया गया है। नन्दीसूत्र। दृष्टान्तों का विस्तार से निरूपण आचार्य मलयगिरि ने अपनी नन्दीसूत्र वृत्ति में किया है। (मलयगिरि-नन्दीवृत्ति)। तत्त्वार्थसूत्र में शिक्षा ग्रहण के अंग के रूप - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परावर्तना एवं धर्मोपदेश का निर्देश है। आदिपुराण में शिक्षा विधि के निम्नलिखित भेद बताये गये हैं- 1. पाठ विधि 2. प्रश्नोत्तर विधि 3. शास्त्रार्थ विधि 4. उपदेश विधि 5. नयविधि 6. उपक्रमविधि 7. पंचांग विधि 8. प्ररूपणा विधि। जैन आगम ग्रन्थ सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशांग औपपातिक, राजप्रश्नीय, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार, आदि ग्रंथों में पुरुषों और महिलाओं को दी जाने वाली क्रमश 72 और 64 कलाओं के निर्देश के प्रसंग में पुरुषों के 142 एवं महिलाओं के विद्याओं की संख्या 139 है।
SR No.032684
Book Title1st Jain International Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaina Jito Shrutratnakar
PublisherJaina Jito Shrutratnakar
Publication Year2020
Total Pages40
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy