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________________ प्रा० जै० इ० भाग दूसरा रहा है, तब महाराज ने उससे पूछा कि “तुझे राज्य लेकर क्या करना है ?" इसके उत्तर में उसने एक मार्मिक गीत सुनाया, जिसका अर्थ यह था कि "मैं स्वयं महान् सम्राट् चन्द्रगुप्त के वंश का सीधा वारिस हूँ और अपने पुत्र कुमार के लिये राज्य की माँग करता हूँ।" इन शब्दों को सुनते ही महाराजा अशोक ने उस गायक के रूप में तत्काल अपने परम प्रिय पुत्र कुणाल को पहचान लिया, जिसने केवल पितृ-आज्ञा शिरोधार्य कर अपने हाथों से ही अन्धत्व स्वीकार कर लिया था। उसी क्षण पर्दा हटाकर, चिर-वियोग के पश्चात् , हर्षाश्रु-युक्त नेत्रों से उसने अपने पुत्र को गले लगा लिया और पूछा कि पुत्र की प्राप्ति कब हुई । इस पर कुणाल ने उत्तर दिया कि “संप्रति" [ इस संस्कृत शब्द का अर्थ होता है, हाल ही में, अभी ही ही; क्योंकि उस समय कुमार की अवस्था केवल छः मास की ही थी] । अपने पौत्र के शुभ जन्म का सुखद समाचार सुनकर महाराज अशोक ऐसे हर्षोन्मत्त हुए कि (एक तो दीर्घकाल के पश्चात् पुत्र-वियोग दूर होने के कारण आनन्द ही आनन्द छा रहा था, उसमें भी फिर पौत्र-जन्म का शुभ समाचार पाने पर तो पूछना ही क्या था ?) उन्होंने वहीं प्रधान मन्त्री को आज्ञा दी कि शीघ्र ही अवन्ति जाकर एक राजवंशी अथवा राज्यको के योग्य समारोह के साथ बाल कुमार को ले आओ और मगधपति के रूप में उसे सिंहासन पर बिठाओ। (संप्रति का जन्म ई० पू० ३०४, जब संप्रति गद्दी पर बिठाया गया तब उसकी अवस्था दस मास की थी (ई० पू० ३०४ ) और उस शुभ प्रसंग के अनुसार महाराज ने कुमार का नाम प्रियदर्शिन् २ रखाक्योंकि उसके मुख के दर्शन मात्र से ही (१५ ब) इससे यह स्पष्ट होता है कि राजा प्रियदर्शिन् ने अपने
SR No.032648
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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