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________________ को देखकर बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोंश हो गए कि उनके हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भीं रथ, हाथी व घोड़े से धरती पर आ गए। उसी समय उन्हे श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के दर्शन हुए राजकुमारी रुक्मिणीजी रथ पर चढ़ना ही चाहती थी कि श्रीकृष्ण ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते उनकी भीड़ में से रूक्मिणीजी को उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओं के सिर पर पांव रखकर उन्हे अपने रथ पर बैठा लिया जिसकी ध्वजा पर गरूड़ का चिन्ह था, और वे बलरामजी आदि यदुवंशियों के साथ वहां से चल पड़े। रुक्मिणीजी के बड़े भाई रुक्मी को यह बात बिल्कुल सहन नहीं हुई कि मेरी बहिन को श्रीकृष्ण हर ले जाए और राक्षस रीति से बलपूर्वक उनके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ली और श्रीकृष्ण का पीछा किया। महाबाहु रुक्मी ने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियों के सामने यह प्रतिज्ञा की कि, मैं आप लोगों के सामने यह शपथ ग्रहण करता हूँ कि यदि मैं युद्ध में श्रीकृष्ण को न मार सका और अपनी बहिन रूक्मिणी को न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुन्दनपुर में प्रवेश नही करूंगा, और सारथी से कहा जहाँ कृष्ण हो वहाँ मेरा रथ शीघ्रता से ले चलो । रुक्मी और श्रीकृष्ण के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें रुक्मी को पराजय प्राप्त हुई, श्रीकृष्ण ने रुक्मी को जिवित पकड़ लिया किन्तु बहन रुक्मणी ने भाई रुक्मी की जीवन भीक्षा मांगकर उसे बचाया | रुक्मी ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी की श्रीकृष्ण को मारे बिना व छोटी बहिन को लौटाए बिना वापस कुन्दनपुर नहीं जायेगा । अतः रुक्मी अपनी प्रतिज्ञा अनुसार वापस कुन्दनपुर नहीं गए तथा अपने रहने के लिए भोजकुट नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसाई जो वर्तमान में भोपावर के नाम से जानी जाती हैं । 13
SR No.032639
Book TitleBhopavar Tirth ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashwant Chauhan
PublisherShantinath Jain Shwetambar Mandir Trust
Publication Year
Total Pages58
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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