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________________ * तीर्यते अनेन इति तीर्थ * पुण्य क्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुथा ऋद्धिमृच्छति । पुण्य क्षेत्रे कृतं पापं महदण्वपि जायते॥ - शिवपुराण, विद्येश्वर 13/36-38 तीर्थ वास जनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापों का नाश कर देता है। तीर्थ में किया हुआ मानसिक पाप वजलेप हो जाता है। वह कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ता है। भारतीय संस्कृति में तीर्थ स्थल का अट्यधिक महत्व है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिन्हे देवताओं तथा ऋषियों ने अपना वास स्थान बनाकर अनुगृहीत किया है। इसीलिए उनमें टीर्थत्व प्रकट हो गया है। तथा अन्य बहुत से तीर्थ क्षेत्र ऐसे हैं जो लोगों की रक्षा के लिए स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं। - श्री सोमप्रभाचार्यजी ने टीर्थकी महिमा पुनीत तीर्थयात्रा करने वाले संघ का वर्णन करते हुए कहा है कि - यः संसार निरास लालस मतिर्मुक्यर्थमुतिष्ठटो, यं तीर्थ कथंयति पावन तया येनास्ति नान्यः समः । यस्मै तीर्थपतिनमस्याति सतां यस्यमाच्छु भं जायते, स्फुर्टियस्य परावसति च गुणा यस्मिनस्य संघोऽय॑तान् ।। अर्थात जो संसार से उद्विग्न होकर उसे छोड़ने की इच्छा से मोक्ष में जाने के लिए तत्पर बनता है, पवित्र होने के कारण ज्ञानी पुरुष जिसे तीर्थ कहते हैं, जिसके समान जगत में अन्य कोई नहीं जिसे तीर्थंकर भी नमस्कार करते हैं, जिसके द्वारा सतपुरुषों का कल्याण होता है, जिसकी अत्युत्तम महिमा है, जिस श्री संघ में अनेक गुणों का वास है, उस संघ की तुम पूजा करो। भारत की तपोभूमि पर अनेक पुण्यात्माओं ने परम उपकारी जगत वल्लभ तीर्थकर भगवंतो के साकार स्वरुप की स्थापना, न केवल स्वकल्याण अपितु जनकल्याण के लिए भी की है। उनक (10)
SR No.032639
Book TitleBhopavar Tirth ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashwant Chauhan
PublisherShantinath Jain Shwetambar Mandir Trust
Publication Year
Total Pages58
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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