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महोटसव किया इसके बाद एक हजार देवों से अधिष्ठित चक्र रत्न से अस्त्रशाला से निकल कर पूर्व दिशा की ओर चला। उसके पीछे महाराजा शान्तिनाथजी सेना सहित दिग्विजय करने के लिए रवाना हुए। दिग्विजय का कार्य 800 वर्षों में पूर्ण करके महाराजा हस्तिनापुर पधारें। आपको चौदह रत्न और नवनिधियों की प्राप्ति हई। देवों और राजाओं ने महाराजा के चक्रवर्ती होने पर उटसव किया और महाराजा शान्तिनाथजी को इस अवसर्पिणी काल का पाँचवा चक्रवर्ती घोषित किया। इसके पूर्व चार चक्रवर्ती सम्राट क्रमशः भरत, सगर, मधवा एवं सनत्कुमार थे।
लोकान्तिक देव चक्रवर्ती सम्राट श्री शान्तिनाथजी से निवेदन करने लगे - हे भगवन ! अब धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किंजिए। इसके बाद प्रभु ने वर्षीदान देना प्रारंभ कर राजकुमार चक्रायुध को राज्य का भार सौंप दिया। भगवान ने जयेष्ट विदी 14 , भरणी नक्षत्र के दिन दीक्षा ग्रहण की।
चक्रायुध आदि राज्यजनों ने दीक्षा महोटसव किया । भगवान को मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ | पौष मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का दिन था, चन्द्र, भरणी नक्षत्र में आया था कि भगवान को अनादिकाल से लगे घाती-कर्म नष्ट हो गए और प्रभु को केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो गया। प्रभु सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हो ठगए। इन्द्र आदि ने प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव किया समवसरण (तीर्थकरको केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्र आज्ञा से कुबेर उनके समवसरण अर्थात सभाभवन की रचना करते हैं, जहां तीर्थंकर का धर्मोपदेश होता है )कीरचना हुई। भगवान ने धर्मदेशना दी जिसका संक्षिप्त सार निम्न है -
- जीवों के लिए अनेक प्रकार के दुःखों का मूल कारण यह चतुर्गति रूप संसार है। जिस प्रकार मूल सूख जाने पर वृक्ष अपने आप सूख जाता है। उसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के क्षीण होते ही संसार अपने आप क्षीण हो जाता है। इन्द्रियों पर अधिकारकिए बिना कषायों का क्षय असंभव है। इन्द्रिय